सती रानी प्रभावती भारत देश त्यागी ,तपस्वी तथा देश व सतीत्व की रक्षा करने वाली 

फ्यूचर लाइन टाईम्स 



सती रानी प्रभावती भारत देश त्यागी ,तपस्वी तथा देश व सतीत्व की रक्षा करने वाली 


वीरांगणाओं का केन्द्र रहा है। यहां निवास करने वाली विदुशी नरियों ने भी अद्वितीय कार्य किया है। इन के तप व त्याग पूर्ण बलिदानी गाथाओं से इतिहास के पन्ने भरे पडे हैं। एसी ही देवियों में से एक देवी का नाम प्रभावती है।


गुन्नोर के राजा की रानी प्रभावती राजकीय गुणों से सम्पन्न तथा रुप , लावण्य की अद्वितीय धनी थी। इस में उसके समकक्ष अन्य नारी का मिलना दुर्लभ सा ही था। इस कारण उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर - दूर तक फ़ैल चुकी थी । इस चर्चा को सुनकर उसके निकट्स्थ यवन अधिपति का उस पर मुग्ध होना यवनों की परम्परा के अनुसार स्वाभाविक ही था। अत: उसे पाने के उद्देश्य से इस यवन ने गुन्नोर पर आक्रमण कर दिया।  


रानी प्रभावती ने भी अपनी सेना को कूच का आदेश दे दिया तथा दोनों सेनाओं में खूब जोरदार मार काट हुई। शत्रु की एक बडी सेना इस में खेत हुई , जबकि बहुत से राजपूत सैनिक भी शहीद हो गये। अब रानी के पास मुठ्ठी भर सैनिक ही शेष बचे थे, जिनकी सहायता से सीधे युद्ध मे सफ़लता सम्भव न थी। अत: रानी ने एक योजना बनायी। इस योजना के अन्तर्गत उसने अपने सैनिकों सहित किले में जा कर युद्ध को निरन्तर जारी रखना था।


रानी ने अपनी योजना के अनुसार अपनी सेना सहित किले की और मुंह किया। रानी के किले की और बढ्ते ही यवन सेना ने नगर पर अधिकार कर लिया तथा अब उन्होंने रानी का पीछा करना आरम्भ कर दिया किन्तु किले में प्रवेश करने तथा किले का दरवाजा बन्द करने के संघर्ष में भी उसके कई सैनिक शहीद हो गये। अब उसके पास थोड़े सैनिक ही शेष बचे थे किन्तु इतनी कम सेना के होते हुए भी उसके साहस में कहीं भी और कुछ भी कमीं न थी। वह विजय का संकल्प लेकर किले में आयी थी और विजय ही उसका एक मात्र लक्ष्य था। किले में जा कर रानी ने तत्काल अपनी व अपनी सेना की सुरक्षा की व्यवस्था की तथा घात लगाने के अवसर की तैयारी करने लगी। अब यवन भी स्वयं को रानी का प्रतिरोध करने में असहाय अनुभव कर रहा था। उसने भी विजयी होने व रानी को पाने की एक योजना पर कार्य करते हुये रानी को एक पत्र लिखा। उसने पत्र में इस प्रकार लिखा कि“ प्रभावती मेरे साथ विवाह कर लो, मैं आपके साथ एसे रहूँगा , जैसे एक दस रहता है|”


पत्र देखते ही सती पथ की अनुगामी रानी का चेहरा क्रोध से लाल हो गया, उसकी आंखों से अंगार बरसने लगे किन्तु सेना की कमीं को देखते हुए वह क्रोध में आ कर कोई एसा कदम नहीं उठाना चाहती थी, जिसका परिणाम विनाश हो। उसने संयम को नहीं खोया तथा कूट्नीति से काम लेते हुए उस पत्र का उतर भी लिख कर भेज दिया।


रानी ने यवन को उसके पत्र के उतर में लिखा कि "मैं विवाह का न्योता स्वीकार करती हूं। मेरे विवाह के समय तेरे पास पहनने को उतम वस्त्र इस समय नहीं हैं। इस कारण मैं पोषाक भेज रही हूं। आप इस पोषाक को पहन कर ही पधारें।"


सब जानते हैं कि स्वार्थी तथा प्रेम से ग्रसित आसक्त व्यक्ति के पास बुद्धि नहीं होती। कुछ एसी ही अवस्था थी उस यवन की। पत्र पाते ही वह खुशी से झूम उठा। वह नहीं जानता था कि राजपूत रमणियां अपने सतीत्व की रक्षा के लिए किस सीमा तक जा सकती हैं ? राजपूत रमणियां इस प्रकार के कलुषित व्यवहार करने वालों की जान तक लेने या फ़िर स्वयं के प्राण उत्सर्ग करने में एक क्षण की भी देर नहीं किया करतीं।


रानी से विवाह के लिए भेजी गई पोषाक, वस्त्रादि को उसने बडी प्रसन्नता से पहन कर रानी के पास जाने की तैयारी आरम्भ कर दी । कुछ ही क्षणों वह किले में रानी के महल के सम्मुख जा पहुंचा। रानी तो उसको अन्तिम समय में तडपता हुआ शरीर देखने को पहले से ही व्यग्र हो, उसकी प्रतीक्षा में महल के द्वार पर खडी थी। रानी को देखते ही, उसकी सुन्दरता की झलक मात्र से ही वह परेशान हो गया तथा उस के मुंह से अकस्मात् ही निकला" यह तो अपसरा है " रानी उसे तथा उस की अवस्था का मूक रहते हुए निरीक्षण करती रही। इस परिधान को धारण करने से यवन को कुछ कष्ट अनुभव हो रहा था, रानी को पाने के लिए वह निरन्तर व्याकुल हो रहा था किन्तु ज्यों-ज्यों समय बीत रहा था, यह नया परिधान उसकी परेशानी और व्याकुलता को बढाता ही चला जा रहा था तथा रानी की खुशी बढती ही जा रही थी।


रानी को शीघ्र ही अपनी योजना साकार होती दिखाई दे रही थी क्योंकि उस के भेजे वस्त्रों को पहनने वाले इस यवन पर वस्त्रों ने अपना रंग दिखाना आरम्भ कर दिया था। कुछ ही समय में वह पीडा से बुरी तरह से व्याकुल हो उठा । उसकी आंखों की सामने अन्धेरा सा छाने लगा। पागलों का सा व्यवहार करते हुए वह अपने वस्त्रों को फ़ाडने लगा। छटपटाते हुए वह चिल्लाया " अरे! मैं तो मरा। " 


रानी ने भी इस समय प्रत्युतर देते हुए कहा"खां साहब! अब आप की अन्त की घडी आ पहुंची है। मेरे बदले मृत्यु से विवाह हो रहा है। आपकी कामान्धता से सतीत्व की रक्षा के लिए इसके अतिरिक्त और उपाय ही नहीं था कि आप की मृत्यु के लिए विष से रंगी पोषाक भेजती।"


 इतना मात्र ही बोल कर उस सती प्रभावती ने प्रभु का स्मरण करते हुए नर्मदा नदी की पावन जलधारा में कूद कर अपने जीवन की आहुति दे दी। वह कामान्ध यवन भी वहीं पर ही तडपते हुए मर गया। 


 सती प्रभावती के आत्म बलिदान से , सती होने से जो ज्योति प्रकट हुई, उससे गुन्नोर राज्य चहुं और से जगमगा उठा। चारों दिशाएं आलौकित हो गईं तथा जन-जन की गाथाओं में इस सती की जीवन लीला के गीत गाए जाने लगे। 


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