देवयज्ञ/अग्निहोत्र/हवन का विज्ञान

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


द्रव्य की अविनाशिता के नियम के अनुसार पदार्थ कभी नष्ट नहीं होता। पदार्थों को अग्नि में जलाने या पदार्थों पर किसी रासायनिक क्रिया करने से पदार्थों के अपने स्वरूप में ही परिवर्तन होता है। परिवर्तनों होने पर पदार्थ की बहुत कम मात्रा नवीन पदार्थ में बदल जाती है लेकिन निस्तापन व भर्जन आदि क्रियाओं द्वारा पदार्थ का अधिकतम भाग गैसीय रूप में बदल जाता है। वातावरण में उपस्थित धूल मिट्टी के कण कोलॉइडी आकार में  कोहरे फॉग (Fog) के रूप में वातावरण में प्रदूषण उत्पन्न करते हैं। इस फॉग (Fog) रूपी वातावरण के प्रदूषण को दूर करने के यज्ञ विज्ञान को निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है। यदि बहुत धूलभरे वातावरण में किसी ऐसे व्यक्ति को भेजा जाए जिसकी कमीज की एक बाँह पर गाय का घी लगा हो तथा दूसरी बाँह पर घी नहीं लगा हो और वह व्यक्ति एक-दो घण्टे रुककर वहाँ से लौटकर अपनी शर्ट उतार कर झाड़े तो शर्ट की जिस बाँह पर घी लगा था उससे धूल मिट्टी झड़ेगी नहीं। इससे पता चला कि घी में धूल मिट्टी के कोलॉइडी कणों को पकड़ने (खींचने)  की बड़ी ताकत (शक्ति) है। प्रात: कालीन बेला (ब्रह्ममुहूर्त) में जब वातावरण का ताप न्यूनतम होता है तब ओस पड़ती है तो उस समय धूल मिट्टी लगे गैसीय घी के कणों पर वायु की जलवाष्प भी जम जाती है और वह भारी होकर ओस के साथ वातावरण से भूमि पर आ जाते हैं और वातावरण शुद्ध व साफ हो जाता है। यज्ञ में जलवाष्प को संघनित (Condense) करने वाले आर्द्रताग्राही (Moisturizer) पदार्थ हवन सामग्री के साथ प्रयोग करके वृष्टि यज्ञ किया जाता है। यज्ञ में विशिष्ट औषधियों का प्रयोग करके पुत्रेष्टि यज्ञ भी किया जाता था। रामायण काल में श्रंगि ऋषि ने पुत्रेष्टि यज्ञकिया था और राम,लक्ष्मण,भरत एवं शत्रुध्न जैसे महान् पुत्र उत्पन्न हुए। इसी प्रकार गो संरक्षण एवं संवर्धन के लिए गोमेघ यज्ञ राष्ट्र की सुख समृद्धि एवं संगठित रखने के लिए अश्वमेघ यज्ञ किए जाते थे।


यज्ञ में विभिन्न प्रकार की अग्नियों को उत्पन्न करके यज्ञ से अलग अलग प्रकार के लाभों को प्राप्त करते थे। जैसे सूखे मेवे युक्त सामग्री की आहुति देने से गैस, BP, ह्रदय, शुगर आदि रोगों में लाभ होता है। इसी प्रकार अलग-अलग वक्षों जैसे आम, पीपल, गूलर, बरगद ,पलास के पौधों की समिधा (आहुति की लकड़ी) का प्रयोग करके अलग-अलग लाभ प्राप्त होते हैं। अंगारों की अग्नि या ज्वाला अग्नि का भी अलग अलग लाभ मिलता है। इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह है कि हर पदार्थ की ज्वाला का रंग भी भिन्न-भिन्न होता है अर्थात् उनके गुण भी भिन्न-भिन्न ही होंगे और जब गुण भिन्न-भिन्न होंगे तो उनके लाभ भी भिन्न-भिन्न प्राप्त होते हैं। प्रायोगिक तौर पर भी देखने में आता है कि चूल्हे की आग पर सेकी गईं रोटियांँ गैस पर सिकी रोटियों की अपेक्षा पचने में अधिक आसान होती हैं। रसायन विज्ञान में पदार्थों का जब ज्वाला परीक्षण करते हैं तो उसमें पदार्थ को ज्वाला में रखकर गर्म किया जाता है तो जो ज्वाला का रंग बनता है वह विशेष होता है और उसी से उस पदार्थ की पहचान कर ली जाती है। यह ज्वाला के भिन्न-भिन्न रंग पदार्थों में उपस्थित इलेक्ट्रॉनों के इलेक्ट्रॉनिक विन्यास पर निर्भर होते हैं। इन्हीं रंगों से पदार्थ की पहचान कर ली जाती है। इस प्रकार वातावरण को शुद्ध और पवित्र करने की यज्ञ के अलावा और दूसरी कोई भी तकनीक.(Technique) विधि नहीं है जो इतने कम खर्च में इतना अत्यंत व्यापक  असर कर सके। यज्ञ तो कहीं भी कोई गरीब भी कर सकता है । यज्ञ करने के लिए तो किसी भी तरह के यंत्र या मशीन की भी जरूरत ही नहीं होती है और कहीं भी कभी भी किया जा सकता है । प्रत्येक व्यक्ति वातावरण में पसीना, मलमूत्र एवं स्वास में CO२ विसर्जन कर वातावरण को गंदा तो नित्य करता है । परन्तु जो व्यक्ति नित्य इस प्रर्यावरण को गंदा या प्रदूषित कर रहा है कि उसी का दायित्व है कि वह नित्य इसे शुद्ध भी करे। पदार्थ में उपस्थित गुण सूक्ष्म रूप धारण कर अधिक शक्तिशाली होकर और अधिक लाभदायक हो जाते हैं। विज्ञान के अनुसार रासायनिक प्रक्रिया स्थूल पदार्थ की अपेक्षा सूक्ष्म कणों वाले पदार्थों में अधिक तेजी से होती है। लकड़ी या कोयला धीरे-धीरे जलता है पेट्रोल-डीजल-केरोसिन कुछ तेजी से जलते हैं और कुकिंग गैस या कोई ईंधन गैस अत्यंत तीव्र गति से जलती है। रसायनिक क्रिया में पदार्थ के अणु भाग लेते हैं जो अत्यंत सूक्ष्म हैं ।अतः पदार्थ जितना अधिक सूक्ष्म होगा वह क्रिया में उतनी ही जल्दी भाग लेगा एवं क्रिया तेज होगी। रासायनिक प्रक्रिया ठोस और द्रव की अपेक्षा गैस में सबसे अधिक तेजी से होती है। स्थूल वनस्पति और औषधियों की यज्ञाग्नि में हवि देने से उसके औषधीय गुण कई गुना बढ़ जाते हैं। यज्ञ में जो हव्यद्रव्य आहुत किए जाते हैं वे अत्यंत सूक्ष्म होकर गैस रुप में आ जाते हैं। हल्के होकर शीघ्र ही संपूर्ण वायु में फैल जाते हैं। यह वैज्ञानिक सत्य है स्थूल पदार्थ से उसके चूर्ण में,चूर्ण से तरल में और तरल से वायु या गैस रूप में अधिक शक्ति होती है । यज्ञाग्नि में भस्म हुए पदार्थों की है। सूक्ष्म रूप में वे सदा आकाश में बने रहते हैं। आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली में प्रयुक्त की जाने वाली बिभिन्न भस्में सूक्ष्मीकरण के सिद्धांत के आधार पर तैयार की जाती हैं। यदि हमारे शरीर को लौह खनिज की आवश्यकता होती है तो चिकित्सक लोहे को स्थूल रूप में नहीं देते हैं वह लोह भस्म देते हैं।जो औषधि का कार्य करती है। जिस धातु में अग्नि की जितनी पुट होगी उतनी ही अधिक शक्तिशाली होगी।


अहुतमसिहविर्धानं.....यच्छनतां पञ्च।।(यजु०१/९)
अर्थात् अग्नि में डाला गया पदार्थ परिवर्तित होकर नैंनो कणों (Particles) के रूप में सूक्ष्म बन जाता है ।स्थूल होने से कोई भी पदार्थ वायुमंडल में नहीं फैल सकता। पदार्थ सूक्ष्म होकर शक्तिशाली बन जाता है (होम्योपैथी की दवाओं की पोटेंसी (शक्ति) का सिद्धांत भी नैंनो Particles की सूक्ष्मता के आधार पर ही है )और वातावरण में फैलकर वायु जल और आकाश को सुगंधमय बना देता है।व्यापक किरणों वाला सूर्य भी उन सुगंधमयी औषधियुक्त हवियों को अंतरिक्ष में फैलाकर दुर्गंधादि दोषों का नाश करता हुआ वायु को शुद्ध और सुखकारक बनाताहै। यज्ञ द्वारा वायुमण्डल में ओजोन (O3) की व्रृद्धि होती है और ओजोन परत में छिद्र नहीं हो पाते जिससे पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर नहीं आती और वे हानि नहीं कर पाती ।


यज्ञ का शाब्दिक अर्थ है  - देव पूजा, संगतिकरण और दान। देव पूजा अर्थात् अग्निहोत्र के माध्यम से प्रज्वलित अग्नि में घी और सामग्री से आहुति प्रदान करना। इस वैज्ञानिक प्रक्रिया के माध्यम से वातावरण की शुद्धि होती है, जिसके लिए वेदों में बार-बार यज्ञ करने पर बल दिया गया है। इस आधुनिक सभ्य मानव के पास इतना समय नहीं कि वह यज्ञ कर सके। इसीलिए उसने सस्ता और शार्टकट रास्ता ढूंढ लिया है कि अगरबत्तियां जलाकर भगवान को प्रसन्न कर लिया जाए और वातावरण की भी शुद्धि हो जाए।क्या यह विधि उचित है  ? "अगरबत्ती के धुएं से कैंसर का खतरा  " चीन के एक शोध में दावा किया गया है कि अगरबत्ती से निकलने वाला धुआँ सिगरेट से भी खतरनाक साबित हो सकता है। अध्ययन के अनुसार सुगन्धित अगरबत्ती के धुएं में म्यूटाजेनिक, जीनोटाक्सिक, साइटोटाक्सिक जैसे विषैले तत्व होते है, जिनसे कैंसर होने का खतरा रहता है। अगरबत्ती के हानिकारक धुएं से शरीर में मौजूद जीन का रूप परिवर्तित हो जाता है। जो कैंसर और फेफड़ों से जुड़ी बीमारियां होने की पहली स्टेज है और जेनेटिक म्यूटेशन से डीएनए में भी परिवर्तन हो सकता है।


आज हर मन्दिर में, दुकान में, घर में पूजा पाठ में, धार्मिक अनुष्ठान में किसी चीज के उदघाटन के अवसर पर बिना किसी झिझक के अगरबत्तियां सुलगाई जाती है। इसका परित्याग कर के इसके स्थान पर गौधृत का दीपक जला लें तो ज्यादा अच्छा रहेगा क्योंकि १० ग्राम गौधृत को दीपक में जलाने से अथवा यज्ञ में आहुति डालने से १ टन प्राण वायु (आॅक्सीजन) उत्पन्न होती है तथा उससे वायुमण्डल में एटोमिक रेडिएशन का प्रभाव कम हो जाता है।  " गाय के घी में वैक्सीन एसिड, ब्यूटिक एसिड वीटा कैरोटीन जैसे तत्व पाए जाते हैं जो शरीर में पैदा होने वाले कैंसरीय तत्त्वों से लड़ने की क्षमता रखते है। हवन में गाय के घी व सुगन्धित, रोगनाशक, आरोग्य कारक तथा मीठे पदार्थों से बनी हुई सामग्री की आहुतियां दी जाती हैं।पदार्थ विद्या का सिद्धान्त है कि कभी कोई वस्तु नष्ट नहीं होती, अपितु उसका रूप परिवर्तन होता है । इस सिद्धान्त के अनुसार हवन की  अग्नि में डाली हुई आहुतियां  सूक्ष्म रूप में परिवर्तित होकर अनेक गुणा शक्ति सम्पन्न हो जाती हैं। सूक्ष्म हुईं वे आहुतियां वायु के साथ फैलकर दूर दूर तक सुगन्ध का विस्तार व दुर्गन्ध की निवृत्ति करतीं हैं और उन आहुतियों से वायु व जल सुगन्धित तथा आरोग्य कारक होकर जीवों को सुख प्राप्त होता है।


यज्ञ ( हवन) एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है और ये अगरबत्तियां जलाना अवैज्ञानिक हानिकारक तरीका है। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने यज्ञ करने पर बल दिया है न कि अगरबत्ती सुलगाने पर... वे सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास में लिखते हैं  - प्रत्येक मनुष्य को सोलह- सोलह आहुति और छ: - छ: ग्राम माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिए और जो इससे अधिक करें तो बहुत अच्छा है।घी में ही वह सामर्थ्य है जो दुर्गन्धित वायु को बाहर निकाल सकती हैं।कैंसरकारक सस्ते नुस्खे न अपना कर यज्ञ की ओर लौटने से ही कल्याण होगा। यह ऋषियों का दिया हुआ बहुत बड़ा विज्ञान है।


पारम्परिक यज्ञ केवल कर्मकाण्ड की ही वस्तु नहीं , अपितु एक महा चिकित्सा विज्ञान भी है । इस पारम्परिक यज्ञ पर देश विदेश में अनेकों शोध - अनुसंधान नित्य प्रति हो रहे हैं । आपको अवगत करा दें कि यज्ञ - हवन चिकित्सा  अतिप्राचीन काल से ही एक सम्पूर्ण चिकित्सा पद्धति रही है । प्राचीन काल से ही हमारे ऋषि महर्षियों ने इसके लाभों से जन सामान्य को लाभान्वित करने-कराने के उद्देश्य से अपना सम्पूर्ण जीवन इस पर शोध व अनुसंधानों पर लगा दिया । यही नहीं उस ज्ञान को संग्रहित कर सुरक्षित भी किया । उन्होंने बताया कि ईश्वर ने जो वनोषधियां हमें उपहारस्वरूप उपयोगार्थ दी है, उन्हीं वनोषधियों से हवन द्वारा रोगों का समन करने की विधा का प्रकटीकरण किया है।


"आयुर्वेदेषु यतप्रोक्तं यस्य रोगस्य भेषजम् । 
तस्य रोगस्य शान्त्यर्थं तेन तेनैव होमयेत ।। 


चिकित्सा विज्ञान के सूक्ष्मीकरण के सिद्धांत पर आधारित यज्ञ अर्थात् होम( हवन)चिकित्सा की यह विशेषता है कि इसमें रोगानुसार निर्धारित वणौषधियों को सेवन के साथ हविद्रव्य के रूप में हवन में प्रयोग की जाती है। यही नहीं विशेष समिधाओं के साथ हवन भी किया जाता है । जिससे कम समय में अधिक लाभ मिलता है । एक निश्चित समय पर रोगानुसार वेद के मंत्रों द्वारा किये हवन व मंत्र ध्वनि से एक विशिष्ट प्रकार की धूम्रिकृत प्रचंड ऊर्जा की उत्पत्ति होती है , जो हमारे (नाक ) नासिका छिद्रों व रोम कूपों द्वारा रोगी के शरीर में सूक्ष्म से सूक्ष्म शारीरिक रचना में प्रवेश कर शरीर और मन में जड़ बनाकर बैठी आधी - व्याधियों को जड़ से समूल नष्ट करने में सफ़ल हो जाती है । जीवाणुओं , विषाणुओं, वायरस आदि को निर्मूल करने और जीवनी शक्ति का संवर्धन करने में यज्ञ , होम , हवन ऊर्जा से बढ़कर अन्य कोई सरल व सफल साधन नहीं है ।


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