अध्यात्म क्या था? क्या हो गया? क्या होना चाहिए ?

 फ्यूचर लाइन टाईम्स 


एक भ्रम यह है कि ईश्वर को नाम रट अर्थात जप और पूजा पाठ से अपने वशवर्ती किया जा सकता है और उससे उचित अनुचित मनोकामनाओं को पूरा कराया जा सकता है। यह ईश्वर की महानता में बहुत बड़े आक्षेप का आरोपण करना है, उसकी विवेक-बुद्धि को न्यायशीलता को कलंकित करना है। चारणों के मुंह प्रशंसा सुनकर जिस प्रकार मध्यकालीन सामन्त फूल कर कुप्पा हो जाते थे और उस यशगान के बदले उन्हें बहुमूल्य उपहार प्रदान किया करते थे, इसी स्तर का भगवान को मानें और उसे चापलूसी, चमचागिरी के आधार पर फुसलाने का प्रयत्न करें, तो समझना चाहिए कि ईश्वर की महानता को समझने में हम समर्थ नहीं हुए। 


भोग प्रसाद की, वस्त्र-छत्र चढ़ाने की रिश्वत देकर यदि हम उसके प्रिय पात्र बनना चाहते हैं और मनमर्जी से उचित-अनुचित काम कराना चाहते हैं, तो उसे धृष्टता ही कहा जायेगा। इस ओछे हथकंडों से हम किसी बैंक मैनेजर से मनचाही राशि प्राप्त नहीं कर सकते, परीक्षकों से भ्रष्ट कार्य नहीं करा सकते, न्यायाधीश को नहीं बरगला सकते और बिना योग्यता के ऊंचे पद पर प्रतिष्ठित होने का दांव चलाने में सफल नहीं हो सकते, तो फिर ईश्वर से उस प्रकार को ओछापन अपनाने की अपेक्षा किस आधार पर की जाय? वह इतना सूझबूझ रहित नहीं है, जिसे भजनानंदी लोग मछली या चिड़िया की तरह प्रलोभन देकर जाल में फंसा सकें और उसकी महानता को तलाक कर सकें।
साधना-उपासना का एकमात्र प्रयोजन आत्मशोधन और आत्मपरिष्कार है। एक शब्द में पात्रता अभिवर्धन है। 


कहा जा चुका है कि दुष्प्रवृत्तियों का निष्कासन 'तप' और सद्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन 'योग' है। इन आधारों को जो जितनी दृढ़ता और तत्परता के साथ अपनाता है, वह अपनी पात्रता बढ़ाते हुए परमेश्वर का प्राणप्रिय बनता है। चतुरता भरे हथकंडों को भक्ति नाम देकर उनके सहारे न ईश्वर का प्रियपात्र बन सकता है, और न उसके अनुग्रह से मिलने वाली विभूतियों का अधिकारी। साभार 


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