ईश्वर, जीव, प्रकृति की त्रिमूर्ति  ( त्रैतवाद )

फ्यूचर लाइन टाईम्स



वैदिक मान्यताएँ


वैदिक वाङ्ममय में तीन सत्ताएँ अनादि मानी जाती हैं । सत्ता वह है जिससे सत् (अस्तित्व) का ज्ञान होता है । वे सत्ताएँ हैं  -  ईश्वर, जीव और प्रकृति । 


प्रकृति सत् (शाश्वत/ Eternal) है, जीव सत्-चित् ( Eternal - Conscious) और ईश्वर सत्-चित् और आनन्द (सच्चिदानन्द : Eternal, Conscious, Blissful) । प्रकृति अज्ञ (ज्ञानरहित) है, जीव अल्पज्ञ और ईश्वर सर्वज्ञ। प्रकृति साधन है, जीव साधक और ईश्वर साध्य।


इन तीन सत्ताओं के साथ-साथ तीन सिद्धान्त भी अटल माने जाते हैं । जो प्रमाणों से अन्ततः सिद्ध हो, वह सिद्धान्त है । वे तीन सिद्धान्त हैं -- कर्म सिद्धान्त, पुनर्जन्म सिद्धान्त और मोक्ष सिद्धान्त ।


पूर्वोक्त तीन सत्ताओं का क्या स्वरूप है ? इनका परस्पर क्या सम्बन्ध है और ये तीन सिद्धान्त इन तीन सत्ताओं से कैसे सम्बद्ध हैं ? यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि तीनों सिद्धान्त जीव के लिये हैं; इनमें प्रकृति जीव की सहायक है और ईश्वर अधीक्ष्यक। 


इन सभी विषयों के बारे में सम्यक जानकारी ही वैदिक दर्शन व वैदिक मान्यताओं को ठीक से समझना है।


ईश्वर की सृष्टि का विधान त्रिकों में रचित प्रतीत होता है। एक सूत्र है:  " सर्वं त्रैराशिकं पाति " अर्थात् सब कुछ त्रिकों में है।


 प्रकृति


प्रकृति की तीन अवस्थाएँ हैं: प्र-कृति, विकृति और प्राकृत । ‘प्र-कृति’ का अर्थ है कृति से पूर्व अर्थात् सृष्टि रचना से पूर्व की स्थिति (Primordial Nature / Holy Grail)। इसे अव्यक्त प्रकृति या प्रधान भी कहते हैं । यह एक साम्यावस्था (State of Equilibrium) है। 


सृष्टि रचना के समय इसमें 'विकृति’ (Disturbance in Equilibrium) आती है । सृष्टि के सृजन और संहार की अवस्था को विकृति अवस्था कहते हैं । 


प्रकृति की तीसरी अवस्था सृष्टि है जिसे प्राकृत (Created World) भी कहते हैं । यइ दृश्य संसार प्रकृति की प्राकृत अथवा प्रकट अवस्था या सृष्टि है । 


सृष्टि का अपनी कारण अवस्था में लय (Dissolve) हो जाना प्रलय है। सांख्य दर्शन (1.121) का कथन है:
नाश: कारणलय:। 
अर्थात् किसी वस्तु के नाश का मतलब है उसका अपने कारण/ स्त्रोत में लय/ वापस चला जाना। विज्ञान भी यही कहता है : Matter can neither be created nor be destroyed, it only changes its form .
अर्थात् द्रव्य न तो पैदा किया जा सकता है और न इसका ध्वंस किया जा सकता है। यह केवल अपना रूप बदलता है। दूसरे शब्दों में, प्रकृति शाश्वत (Eternal) है।


प्रकृति का ताना-बाना तीन गुणों से बुना है । ये हैं: सत्त्व, रजस् और तमस् । प्रकृति के तीन मुख हैं : काल, आकाश और प्राण (ऊर्जा)। काल के तीन रूप हैं : भूत, वर्तमान, भविष्यत् । आकाश की भी तीन दिशाएँ हैं (Three Dimentional Space) --- लम्बाई, चौड़ाई और गहराई । 


प्राण ऊर्जा का स्रोत है। ऊर्जा परमाणु  में परिवर्तित होकर तीन रूप धारण करती है-- वायु (Gas), तरल ( liquid ) और ठोस (Solid)।


जीव 


जीव तीन अवस्थाओं में रहता है : शरीरावस्था, प्रेत्यावस्था (मृत्यु के उपरान्त तथा पुनर्जन्म के बीच की अशरीरी अवस्था) तथा मोक्ष अवस्था। 


जीव के तीन शरीर हैं : स्थूल शरीर (Physical Body) , सूक्ष्म शरीर (Astral Body) , कारण शरीर (Causal Body)।


जीव की तीन प्रकार की गतिविधि है : ज्ञातृत्व (ज्ञान प्राप्त करना), कर्तृत्व (कार्य करना) भोगतृत्व (सुख- दु:ख का भोगना)। जीव जैसा ज्ञान प्राप्त करता है, वैसे कर्म करता है और जैसे कर्म करता है , वैसे फल भोगता है।


ईश्वर


ईश्वर के अनन्त गुण, कर्म, स्वभाव हैं। संक्षेप मे, वह सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान है। मुख्यतः उसके तीन कार्य हैं : सृष्टि रचना ,धारण और संहार। उसका स्वभाव है: सत्- चित्- आनन्द।


ईश्वर के नामों के विश्लेशण से तीन सत्ताएँ सिद्ध होती हें। ब्रह्म, विष्णु, स्वयंभु, स्वराट् आदि उसकी निजी सत्ता इंगित करते हैं। जगदम्बा, हिरण्यगर्भ, सृष्टिकर्ता ईश्वर के साथ-साथ प्रकृति की सत्ता भी सिद्ध करते हैं।


वेदमंत्रांश है :  स नो बन्धु जनिता स विधाता -- स्पष्ट है , वह अपना बन्धु , पिता आदि नहीं हो सकता। इससे जीव की सत्ता भी सिद्ध हो जाती है।


त्रिविध ब्रह्म


ईश्वर,जीव, प्रकृति तीनों अलग-अलग होते हुए भी, अविभाज्य तरह से आपस में एक दूसरे से गुन्थे हुए (Inextricably inter-twined) हैं। प्रकृति और जीव ईश्वर में वास करते हैं जो इनका अधिष्ठाता (Matrix) है। ईश्वर अन्तर्यामी, सर्वव्यापक होने से प्रकृति के हर कण और हर जीव में वास करता है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में इन तीनों को सम्मिलित रूप में त्रिविध ब्रह्म कहा गया है।


वस्तुतः सृष्टि संचालन के लिये ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों की सत्ता का होना अनिवार्य है। इन में से किसी एक की सत्ता न होने पर, अन्य दो की सत्ता निरर्थक हो जाती है।


कल्पना कीजिये कि ईश्वर और प्रकृति हैं, परन्तु जीव नहीं। ऐसी अवस्था में, प्रकृति जड़ होने से अपना उपभोग कर नहीं सकती और ईश्वर आनन्दस्वरूप होनेसे ,इसका उपभोग करता नहीं। अर्थात् यह तो वैसी स्थिति हुई कि हलवाई ने पकवान तो बना रखे हैं परन्तु खाने वाला कोई नहीं!


अब कल्पना कीजिये कि प्रकृति और जीव हैं ,परन्तु ईश्वर नहीं। प्रकृति अज्ञ/जड़ है, स्वयं को व्यवस्थित कर नहीं सकती। जीव के पास भी इसे व्वस्थित करने का ज्ञान और समर्थ नहीं। अतः सृष्टि रचना असंभव । इन दोनों की सत्ता भी निरर्थक।


अब कल्पना कीजिये कि ईश्वर और जीव  हैं , परन्तु प्रकृति नहीं। ऐसी अवस्था में जीव सदा - सदा के लिये ईश्वर में निष्क्रिय पड़े रहेंगे ।


अतः सृष्टि संचालन के लिये, तीनों सत्ताएँ का होना अनिर्वार्य है।


यहां यह इंगित करना असंगत नहीं होगा कि ईसाई धर्म भी इन्हीं तीन सत्ताओं (God, Souls, Nature -- Heaven , Hell) में विश्वास रखता है। इसी प्रकार इस्लाम धर्म भी इन्हीं तीनों सत्ताओं (अल्लाह, रूह, कुदरत -- जन्नत, जहन्नुम) में विश्वास रखता है।


त्रिविध ब्रह्म की अनुभूति


हर व्यक्ति को बुरा कार्य 
करते समय भय और लज्जा की अनुभूति होती है। स्वामी दयानन्द ने कहा है जो भय की अनुभूति करता है वह आत्मा है और जो भय का भाव जागृत करता है, वह परमात्मा है। अर्थात् हर जीव प्रतिदिन अपनी अन्तरात्मा में ईश्वर की सत्ता की अनुभूति करता है। तैत्तिरीय आरण्यक (3.11.1) का कथन है:
अन्त:प्रविष्ट: शास्ता जनानाम्।
अर्थात् अन्दर प्रविष्ट हुआ (परमात्मा) लोगों का शिक्षक है।


इसी प्रकार हम प्रतिदिन अपने क्रिया - कलापों में त्रिविध ब्रह्म की भी अनुभूति करते हैं। जब हम अति प्रसन्न होते हैं, तो हमारे मुख से स्वतः तीन बार निकलता है : हाह! हाह! हाह! जब अत्यन्त दुःखी होते हैं, तो निकलता है : ओह! ओह!ओह! जब बहुत जल्दी में होते है, तो निकलता है: चलो,चलो,चलो। क्या कोई मनोवैज्ञानिक या जीव-विज्ञान शास्त्री बतला सकता है कि ऐसे शब्द स्वत: तीन बार ही क्यों नकलते हैं, चार बार क्यों नहीं?


खेल गांवों में भी होते हैं, विद्यालियों में भी और विश्वविद्यालयों में भी, सभी में एक, दो, तीन या Ready, Steady, Go के आह्वान से ही खेल आरम्भ होते हैं। किस खेल संस्थान ने यह नियम बनाया है?


निलामी (Auction) में जब वस्तुएँ बेची जाती हैं, जिस वस्तु की कीमत तीन बार पुकारी जाती है, वही कीमत मान्य होती है। उसके उपरान्त अधिक कीमत पर भी उसे नहीं बेचा जा सकता। यदि बेचा जाए, तो गैर- कानूनी है। क्या कोई कानून विशेषज्ञ बतला सकता है कि वस्तु की कीमत के तीन बार पुकारे जाने पर, उसमें कानूनी वैधता कहां से आती है?


इस्लाम में निकाह (विवाह) से पहले, दुल्हन से पूछा जाता है कि क्या तुम्हें यह निकाह मन्ज़ूर है? मन्ज़ूर है? मन्ज़ूर है? दुल्हन के तीन बार "हां" कहने पर ही काज़ी निकाह की रस्म अदा करता है। ऐसा क्यों?


भारत के पहले प्रधानमंत्री से वर्तमान प्रधानमंत्री तक सभी अपने स्वतंत्रता दिवस अभिभाषण  के उपरान्त, लाल किले की प्राचीर से, तीन बार 'जयहिंद' का जनता से उद्घोष करवाते हैं। किसी भी प्रधानमंत्री ने इसका उल्लंघन नहीं किया। ऐसा करने में वे संविधान की किस धारा का पालन करते हैं?


धार्मिक प्रवचन आरम्भ करने से पूर्व, वक्ता श्रोताओं से एक बार या तीन बार ओ३म् का अथवा गायत्री का उच्चारण करवाते हैं। ऐसा क्यों? वह इसलिये कि जब वे एक बार उच्चारण करते हैं, वे परब्रह्म का स्मरण करते हैं! जब वे तीन बार उच्चारण करते हैं, वे त्रिविध ब्रह्म का स्मरण करते हैं!!!
ओ३म् शम्।


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