अवतरणिका : योग की सार्वभौमिकता

योगदर्शन : काव्य-व्याख्या


 


भाग 1:  समाधिपाद सूत्र 1-2


ओ३म् आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः। 
        ..ऋग्वेद 1.89.1 


 हे प्रभो! पावें हम शुभ विचार विश्व के हर छोर से।


        अवतरणिका


योग की सार्वभौमिकता


योग का ध्येय है ,
आत्मा को परमात्मा के दर्शन कराना।
सांसारिक मनुष्यों को भी चाहिये, 
योग से लाभ उठाना।
योग दर्शाय अंतर्निहित
शक्तियों के नये आयाम।
मनोविज्ञान भी करे 
इनकी सत्यता का सम्मान।।
योग पर अंकित नहीं ,
किसी देश या जाति का नाम।
यथेच्छा लगा सकते है, 
प्रणव, क्रास या क्रिसैंट पर ध्यान।
आधुनिक कुछ चिंतक, 
लगाते उद्यान पर ध्यान।
अनुसंधानों से है सिद्ध ,
वे भी पाते निदान।।
न्यूटन ने जब लगाया ,
गिरते हुए सेब पर ध्यान।
विज्ञान को तब मिला,
गुरुत्वाकर्षण का ज्ञान।।
निश्चित मिलें विभूतियाँ, 
यदि करो योग का अनुष्ठान।
प्रस्तुत है इस कृति में,
पातञ्जलयोग का विधान।।
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पादपाठ (फुटनोट)


Newton has said that the idea of gravity came to him as he sat in a contemplative mood and was occasioned by the fall of an apple.
     -- Stephen Hawkins
 
न्यूटन ने कहा है कि उन्हें गुरुत्वाकर्षण का विचार ध्यान की अवस्था में आया जो सेब के गिरने से उत्पन्न हुई।
   -- स्टीफन हाकिंग
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योग दर्शन : समाधिपाद


अथ योगानुशासनम् ।।1।।


सूत्रार्थ : 


अब आरम्भ है योग की पद्धति।


दोहा


अतः मंगल और योग कह ,
जानहु वृत्तिनिरोध।
अनुशासनते जानिये ,
प्रतिपादन चित्तबोध ।।1।।


Sutra / Aphorism (1)


Now begins the Yoga Disciple.


भावार्थ :


अब हम बतलाएँ योग है क्या।
इस पर चलने का मार्ग है क्या।
और योग का है, प्रयोजन क्या।
अपनाओ इसे, पाओ जीवन नया।
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पादपाठ


अथ=अब। अब, कब? जब वेद, उपनिषद् आदि सद्ग्रंथों का अध्ययन करके मुमुक्षुत्वभाव जागृत होने पर, साधक गुरू शरण में जाता है, तब आचार्य उसे योग विद्या का उपदेश करता है।
अथ मंगलाचरण भी माना जाता है।
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योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। (2)


सूत्रार्थ :


चित्त की वृत्ति , या कहो कि, गतिविधि 
पर अंकुश लगाना, है योग।


दोहा


चित्त की वृत्तिनिरोध को, 
योग कहत मुनिराय।
कर्मयोग अभ्यास के,
चित्त निरोध को पाय ।।2।।


भावार्थ :


आवश्यक है सर्वप्रथम ,
समझ लेना चित्त का धर्म।
नहीं तो न समझ पाओगे,
योग का वास्तविक मर्म।
वैदिक वाङ्गमय में वर्णित,
अन्तःकरण चतुष्टय।
है मन, बुद्धि, चित्त और
अहंकार का समन्वय।


योगदर्शन में चित्त केवल,
चेतना को नहीं जताता।
बल्कि है संयोजता, 
जो उपरोक्त चतुष्टय में आता।।


संकल्प-विकल्प, तर्क-वितर्क,
इच्छा-अनिच्छा ,सब को है दर्शाता ।
इन सभी गतिविधियों का निरोध, 
सुझाएँ योग के निर्माता।।


सारा दिन मनुष्य है सोचता रहता, 
इधर उधर की बातें;
सोते, जागते न जाने कितने ख्याल , 
ज़हन में हैं आते;
एक दिन में जितने दृश्य
देखता है इन्सान ;
न कर पाए वह उन्हें , 
एक वर्ष में बयान।
चित्त है एक दर्पण ,
पड़ते जिस पर ये अक्स।
देख जिन्हें मुदित ,
व्यथित या प्रेरित होता है शक्स।।
यही हैं वे चित्त की वृत्तियाँ।
रोक जिन्हें, पावे साधक दिव्य शक्तियाँ।।
 
भटकता है व्यर्थ जब, 
चित्त होता है क्षिप्त अवस्था में;
जब न हो अंकुश लगाने की इच्छा, 
तो हो मूढावस्था में;
जब टिके कुछ क्षण पर फिसल जाए, 
तो होता है विक्षिप्त;
जब साधना से हो ऐच्छक पदार्थ पर केंद्रित, 
तो है एकाग्रित;
जब चित्त की वृत्तियाँ हो जाएँ लुप्त , 
तो होता है चित्तवृत्ति निरोध। 


यही है पराकाष्ठा योग की,
जिसे पाने का  है साधक से अनुरोध।।
सांसारिक लोग भटकते रहें, प्रथम तीन अवस्थाओं में। 
योग-साधक ही पहुँच पाएँ , अन्तिम दो अवस्थाओं में ।।
..................


 पादपाठ


1) कामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धा-अश्रद्धा धृतिरधृति ह्री श्री भीरित्येतत् सर्वं मनः एव।।      
    --  शतपथ ब्राह्मण 14.4.3.9


अर्थात्  कामना, संकल्प, संदेह, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य, अधैर्य, लज्जा, बुद्विमत्ता, भय ये सब मन ही है।


(Desire, Resolve Doubt, Faith, Disbelief,  Patience, Impatience, Shame, Wisdom, Fear -- all these comprise Mind.)
  -- Shatpath Brahman 14.4.3.9


2) Empty thyself and I shall fill thee.
   --  Jesus Christ 


अपने आप को रिक्त करो, मैं तुम्हें ज्ञान से भर दूँगा।
           --   ईसा मसीह


3) The only thing that will deny you access to your soul is your thoughts.
     -- Kienwatcher


केवल एक ही चीज़ है जो तुम्हें अपनी आत्मा से नहीं मिलने देती, वह है तुम्हारे विचार।
    --    कीनवाचर 


राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान नव देहली द्वारा प्रकाशित एवं विद्यासागर वर्मा मुमुक्षु कृत योगदर्शन : काव्य व्याख्या नामक पुस्तक का साभार धारावाहिक प्रसारण आरम्भ  किया जा रहा है।
 


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