शिवलिंग पूजा में अन्धविश्वास, पाखंड, भेडचाल व अश्लिलता- भाग दो

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


(1) प्रश्न - वेद ब्रह्म को संसार का 'अभिन्नानिमित्तोपादानकारण' मानता है। यजुर्वेद अध्याय १६ और अथर्ववेद काण्ड ११ में शंकर को ब्रह्म तथा सर्वस्वरूप कहा है। शंकर की वे अष्ट मूर्तियाँ प्रकृति, महत्तत्व, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी हैं। इन्हीं अष्ट मूर्तियों में शंकर का पूजन होता है।


उत्तर - वेद ब्रह्म को संसार का 'अभिन्ननिमित्तोपादानकारण' नहीं मानता अपितु वेद 'द्वा सुपर्णा' इत्यादि अनेक मन्त्रों से ईश्वर, जीव तथा प्रकृति को अनादि वर्णन करता है। इन तीनों में से प्रकृति संसार का उपादानकारण है, ईश्वर निमित्तकारण तथा जीव साधारण कारण है। यजुर्वेद अध्याय १६ तथा अथर्ववेद काण्ड ११ में रुद्र शब्द से दुष्टों को दण्ड देकर रुलानेवाले ईश्वर, राजा, सभापति, सेनापति तथा ४४ वर्ष तक ब्रह्मचर्य धारण करनेवाले ब्रह्मचारियों और पाँच प्राण, पाँच उपप्राण, ग्यारहवाँ मन - इन ग्यारह का भी वर्णन आता है। शंकर नाम से भी कल्याणकारी परमेश्वर का ही वर्णन वेदों में मिलता है, सती और पार्वती के पति, गणेश तथा कार्तिकेय के पिता, भस्मधारी, नर-मुण्डमालाधारी, भस्मभूषणभूषित, वृषारोही, सर्पकण्ठ, नटवर, नृत्यप्रिय, नन्दा वेश्यागामी, अनसूया-धर्मनाशक, हस्ते लिंगधृक्, व्यभिचारप्रवर्तक महादेव नामक पौराणिक व्यक्ति का वर्णन चारों वेदों में कतई नहीं है और न ही वेदों में कहीं शंकर को सर्वस्वरूप कहा गया है। महत्तत्व, अहंकार, आकाश, वायु इत्यादि ये प्रकृति के ही रूपान्तर हैं, ब्रह्म के नहीं हैं। इसीलिए वेद ने 'अन्धन्तमः' इत्यादि मन्त्र में परमात्मा के स्थान में प्रकृति की पूजा करनेवाले को नरकगामी बतलाया है, अतः उपर्युक्त प्रपञ्च सर्वथैव मिथ्या, निर्मूल तथा वेदविरुद्ध होने से त्याज्य है।


(२) प्रश्न - जो मनुष्य अष्टक प्रकृति में इकट्ठा ही शंकर का पूजन करे उसके लिए ब्रहाण्ड का पूजन है। इसका छोटा रूप ऋषियों ने शिवलिंग बनाया। शिवलिंग ब्रह्माण्ड का नक्शा है। जैसे यह ब्रह्माण्ड ऊपर से नीचे तक और चारों तरफ कुछ गोल होता है. इसी प्रकार शिव के लिंग की आकृति का वर्णन है।


उत्तर - चूंकि वेद ने ब्रह्म के स्थान में प्रकृति की पूजा को पाप वर्णन किया है और प्रकृति के विकार ब्रह्माण्ड की पूजा को महापाप और भयंकार नरक में ले जाने का साधन बतलाया है, इसलिए यह शिवलिंग वैदिक ऋषियों का बनाया हुआ ब्रह्माण्ड का छोटा रूप नहीं है और न ही शिवलिंग ब्रह्माण्ड का नक्शा है, न ही ब्रह्माण्ड की शिवलिंग से शक्ल मिलती है, क्योंकि ब्रह्माण्ड की शक्ल पौराणिकों ने 'मटर या गेंद की शक्ल का ब्रह्माण्ड है', इस तरह बतलाई है और शिवलिंग की शक्ल गोलगोल, लम्बी, मूसल के समान है, और न ही शिवलिंग का इस प्रकार से पुराणों में वर्णन मौजूद है। पुराणों के पढ़ने से पता लगता है कि शिवालयों में जो नीचे गोल दायरे की शक्ल है, वह पार्वती की योनि तथा जो बीच में गोल मूसल-सा गड़ा हुआ है वह शिव का लिंग, अर्थात् दोनों के मूत्रेन्द्रिय की आकृति अर्थात् मूर्ति है। इसके पूर्ण ज्ञानार्थ हम नीचे शिवपुराण का पूरा प्रमाण उपस्थित करते हैं। पढ़िए –


शिवलिंग की स्थापना


दारुनाम वनं श्रेष्ठं तत्रासनृषिसत्तमाः। शिवभक्ताः सदा नित्यं शिवध्यानपरायणाः ॥६॥
भाषार्थ - दारु नाम का एक वन था, वहाँ पर सत्पुरुष लोग रहते थे, जो शिव के भक्त थे तथा नित्यप्रति शिव का ध्यान किया करते थे॥६॥
ते कदाचिद्वने याताः समिधाहरणाय च। सर्वे द्विजर्षभाः शैवाः शिवध्यानपरायणाः ॥८॥
वे कभी लकड़ियाँ चुनने के लिए वन को गये। वे सब-के-सब श्रेष्ठ ब्राहाण, शिव के भक्त, तथा शिव का ध्यान करनेवाले थे॥८॥
*एतस्मिन्नन्तरे साक्षाच्छंकरो नीललोहितः। विरूपं च समास्थाय परीक्षार्थं समागतः॥९॥
इतने में साक्षात् महादेवजी विकट रूप धारण कर उनकी परीक्षा के निमित्त आ पहुँचे॥९॥ 
दिगम्बरोऽतितेजस्वी भूतिभूषणभूषितः । स चेष्टामकरोद् दुष्टां हस्ते लिङ्ग विधारयन् ॥१०॥
नंगे, अति तेजस्वी, विभूतिभूषण से शोभायमान, कामियों के समान दुष्ट चेष्टा करते हुए, हाथ में लिंग धारण करके॥१०॥ 
*मनसा च प्रियं तेषां कर्तुं वै बनबासिनाम्। जगाम तद्वनं प्रीत्या भक्तप्रीतो हरः स्वयम् ॥११॥*म
मन से उन वनवासियों का भला करने के लिए भक्तों पर प्रसन्न होकर शिवजी स्वयं प्रीति से उस वन में गये ॥११॥ 
तं दृष्ट्वा ऋषिपत्न्यस्ताः परं त्रासमुपागताः । विहला विस्मिताश्चान्याः समाजग्मुस्तथा पुनः ॥१२॥
उसको देखकर ऋषियों की पत्नियाँ अत्यन्त भयभीत हो गई, व्याकुल तथा हैरान हुई, कई वापस आ गई ॥१२॥ 
आलिलिंगुस्तथा चान्याः करे धृत्वा तथा परा। परस्परं तु संघर्षात्संमानास्ताः स्त्रियस्तदा ।।१३।।
कई आलिंगन करने लगीं, कई ने हाथ में धारण कर लिया तथा परस्पर के संघर्ष में वे स्त्रियां मग्न हो गई॥१३॥ 
एतस्मिन्नेव समये ऋषिवर्याः समागमन्। विरुद्धं तं च ते दृष्ट्वा दुःखिताः क्रोधमूच्छिताः ॥१४॥
इतने में ही ऋषि महात्मा आ गये। इस प्रकार के विरुद्ध काम को देखकर वे दुःखी हो क्रोध से मूर्च्छित हो गये ॥१४॥ 
तदा दुःखमनुप्राप्ताः कोऽयं कोऽयं तथाब्रुवन्। समस्ता ऋषयस्ते वै शिवमायाविमोहिताः ॥१५॥
तब दुःख को प्राप्त हुए वे कहने लगे - ये कौन है, ये कौन है? वे सब-के-सब ऋषि शिव की माया से मोहित हो गये ॥ १५ ॥
यदा च नोक्तवान् किंचित्सोऽवधूतो दिगम्बरः। ऊचुस्तं पुरुषं भीमं तदा ते परमर्षयः ॥१६॥
जब उस नंगे अवधूत ने कुछ भी उत्तर न दिया, तब वे परम ऋषि उस भयंकर पुरुष को यों कहने लगे॥१६॥ 
त्वया विरुद्धं क्रियते वेदमार्गविलोपि यत्। ततस्त्वदीयं तल्लिंग पततां पृथिवीतले ॥१७॥
तुम जो यह वेद के मार्ग को लोप करनेवाला विरुद्ध काम करते हो, इसलिए तुम्हारा यह लिंग पृथिवी पर गिर पड़े॥१७॥ 
इत्युक्ते तु तदा तैश्च लिङ्गं च पतितं क्षणात्। अवधूतस्य तस्याशु शिवस्याद्भुतरूपिणः ॥१८॥
उनके इस प्रकार कहने पर उस अद्भुत रूपधारी, अवधूत शिव का लिंग उसी समय गिर पड़ा।॥१८॥ 
तलिङ्गं चाग्निवत्सर्वं यद्ददाह पुरः स्थितम्। यत्र यत्र च तद्याति तत्र तत्र दहेत्पुनः ॥१९॥
उस लिंग ने सब कुछ जो आगे आया अग्नि की भाँति जला दिया। जहाँ-जहाँ वह जाता था वहाँ वहाँ सब कुछ जला देता था॥१९॥ 
पाताले च गतं तच्च स्वर्ग चापि तथैव च। भूमी सर्वत्र तद्यात न कुत्रापि स्थिर हि तत्॥२०॥
वह पाताल में भी गया, वह स्वर्ग में भी गया, वह भूमि में सब जगह गया, किन्तु वह कहीं भी स्थिर नहीं हुआ॥ २०॥ 
लोकाश्च व्याकुला जाता ऋषयस्तेऽतिदुःखिताः ॥२१॥
सारे लोक-लोकान्तर व्याकुल हो गये तथा वे ऋषि अति दुःखित हुए ॥ २१ ॥
दुःखिता मिलिताः शीघ्रं ब्रह्माणं शरणं ययुः ॥२२॥
वे दुःखी हुए सब मिलकर ब्रह्मा के पास गये ॥ २२ ॥
मुनीशाँस्ताँस्तदा ब्रह्मा स्वयं प्रोवाच वै तदा ॥ ३१॥
तब ब्रह्मा उन ऋषियों को स्वयं कहने लगे॥३१॥  
आराध्य गिरिजां देवीं प्रार्थयन्तु सुराः शिवम्। योनिरूपा भवेच्चेद्वै तदा तस्थिरतां व्रजेत ॥३२॥
हे देवताओ। पार्वती की आराधना करके शिव की प्रार्थना करो, यदि पार्वती योनिरूप हो जावे तो वह लिंग स्थिरता को प्राप्त हो जावेगा ॥३२॥
पूजितः परया भक्त्या प्रार्थितः शंकरस्तदा। सुप्रसन्नस्ततो भूत्वा तानुवाच महेश्वरः ॥४४॥
जब उन ऋषियों ने परमभक्ति से शंकर की प्रार्थना और पूजा की, तब अति प्रसन्न होकर महादेवजी उनसे बोले ॥४४॥ 
हे देवा ऋषयः सर्वे मद्वचः शृणुतादरात्। योनिरूपेण मल्लिंगं धृतं चेत्स्यात्तदा सुखम् ॥ ४५ ॥
हे देवता और ऋषि लोगो! आप सब मेरी बात को आदर से सुनें। यदि मेरा लिंग योनिरूप से धारण किया जावे तब शान्ति हो सकती है॥४५॥ 
*पार्वतीं च विना नान्या लिङ्ग धारयितुं क्षमा। तया धृतं च मल्लिंग द्रुतं शान्तिं गमिष्यति ।। ४६ ।।
मेरे लिंग को पार्वती के बिना और कोई धारण नहीं कर सकता। उससे धारण किया हुआ मेरा लिंग शीघ्र ही शान्ति को प्राप्त हो जावेगा ।। ४६ ॥
*प्रसन्नां गिरिजां कृत्वा वृषभध्वजमेव च। पूर्वोक्तं च विधिं कृत्वा स्थापितं लिंगमुत्तमम्।। ४८ ॥
पार्वती तथा शिव को प्रसन्न करके और पूर्वोक्त विधि के अनुसार वह उत्तम लिंग स्थापित किया गया ॥४८॥
शिव० कोटिरुद्रसंहिता ४, अध्याय १२
अब इन्साफ़ से बतलायें कि क्या यह ब्रह्माण्ड का नक्शा है या पार्वती की योनि में शिव का लिंग स्थापित किया हुआ है?


(3) प्रश्न - लौकिक ग्रन्थों में योनि और लिंग इन शब्दों से स्त्री-पुरुष की मूत्रेन्द्रिय का भी बोध होता है। किन्तु वेद, पुराण और दर्शन - इनमें इन अर्थों का बोध नहीं होता।


उत्तर - यह ठीक है कि लिंग और योनि शब्द के मूत्रेन्द्रिय से भिन्न और अर्थ भी हैं, परन्तु यह प्रतिज्ञा निर्मूल है कि पुराण आदिकों में लिंग, योनि शब्द के मूत्रेन्द्रिय अर्थ होते ही नहीं। हाँ, यह ठीक है कि अर्थ प्रकरणानुसार लिये जाने चाहिएँ। जैसे (प्र.नं० १ में लिखी हुई कथा में महादेवजी ने जो लिंग को हाथ में पकड़ रक्खा था और ऋषियों के शाप से कटकर गिर पड़ा। यहाँ लिंग से मूत्रेन्द्रिय ही अभीष्ट है और पार्वती की योनि में स्थिर होना, यहाँ योनि का अर्थ भी मूत्रेन्द्रिय ही है, क्योंकि महादेव का सर्वथा नंगा होना, महादेवजी का अश्लील चेष्टा करना, ऋषियों का उसको आचार से हीन देखना और ऋषियों का यह कहना कि तू जो आचार के विरुद्ध कर रहा है यह तेरा काम वेदमार्ग का लोप करनेवाला है-इत्यादि बातों के कारण यहाँ लिंग का अर्थ मूत्रेन्द्रिय के सिवाय और कुछ हो ही नहीं सकता तथा महादेव का यह कहना कि 'मेरे लिंग को पार्वती के बिना और कोई स्त्री धारण नहीं कर सकती' सिद्ध करता है कि इस कथा में योनि का अर्थ पार्वती की मूत्रेन्द्रिय ही है। इसके अतिरिक हम और प्रमाण भी उपस्थित करते हैं -


दक्षिणावर्तलिंगश्च नरो वै पुत्रवान् भवेत्। वामावर्ते तथा लिंगे नरः कन्यां प्रसूयते ॥१॥ स्थूलैः शिरालैर्विषमैर्लिंगारिद्रयमादिशेत्। प्रजुभिर्वर्तुलाकारैः पुरुषाः पुत्रभागिनः ॥२॥ -भविष्य० ब्राह्म० अ० २५


कटुतैलं भल्लातकं बृहतीफलदाडिमम् ॥१७॥ कल्कः साधितैर्लिप्तं लिंगं तेन विवर्द्धते ॥१८॥ गरुड० आचार० अ० १७६


कर्पूरे देवदारुं च मधुना सह योजयेत् । लिंगलेपाच्च तेनैव वशीकुर्यात् स्त्रियं किल ॥२॥ ---- गरुड० आचार० अ० १८०


सैंधवं च महादेव पारावतमलं मधु। एभिर्लिप्ते तु लिंगे वै कामिनीवशकृद् भवेत् ॥१६॥ -गरुड० आचार० अ० १८५


ब्रह्मचर्येऽपि वर्तन्त्याः साध्व्या ह्यपि च श्रूयते । हृद्यं हि पुरुषं दृष्ट्वा योनिः संक्लिद्यते स्त्रियाः ।। २८॥ -भविष्य० ब्राहा० अ० ७३


*सुस्नातं पुरुषं दृष्ट्वा सुगन्धं मलवर्जितम् ।। योनिः प्रक्लिद्यते स्त्रीणां दृते पात्रादिवोदकम् ॥३१॥ -शिव० उमा० अ० २४


पुलकांकितसर्वाङ्गं धर्मकर्मसमन्वितम् । बभूव काममत्ताया योनौ कंडूयनं जलम् ॥ २४॥ -ब्रह्मवैवर्त० ख० ४ अ० २३


ततो जलाशयात् सर्वा दारिकाः शीतवेपिताः । पाणिभ्यां योनिमाच्छाद्य प्रोत्तेरुः शीतकर्शिताः ॥१७॥ -भागवतः स्कं० १० अ० २२


कर्पूरमदनफलमधुकैः पूरितः शिव । योनिः शुभा स्याद् वृद्धाया युवत्याः किं पुनर्हर ॥१६॥ -गरुड० आचार० अ० २०२


नमस्ते ईश वरदाय आकर्षिणि विकर्षिणि मुग्धे स्वाहा इति।' योनिलिंगस्य तैलेन शंकर म्लक्षणात्ततः ॥ १६॥ -- गरुड० आचार० अ० १८४


प्रजग्मुर्गोपिका नाना योनिमाच्छाद्य पाणिना ॥८३॥ -ब्रह्मवैवर्त० खं० ४ अ० २७


क्रमशः उपर्युक्त श्लोकों का भाषार्थ - जिस आदमी का लिंग दायीं तरफ झुका हुआ हो वह पुत्रवाला होता है, जिसका लिंग बायीं तरफ को झुका हुआ हो उसके कन्या पैदा होती हैं॥१॥ मोटे रगोंवाले, टेढ़े लिंगों से दरिद्रता होती है। जिन पुरुषों के लिंग सीधे, गोल होवें, वे पुत्रों के भागी होते हैं ॥२॥ -भविष्य.


कड़वा तेल, भिलावा, बहेड़ा तथा अनार-इसकी चटनी से लेप करने से लिंग बढ़ता है। - गरुड.


काफूर, देवदारु को शहद के साथ मिलाकर लिंग के लेप करें तो स्त्री वश में हो आती है॥२॥
हे महादेव। नमक और कबूतर की बीठ शहद में मिलाकर यदि लिंग पर लेप करे तो स्त्री वश में हो जाती है ॥१६॥ - गरुड.


ब्रह्मचर्य में रहती हुई साध्वी स्त्री की योनि भी सुन्दर पुरुष को देखकर टपकने लग आती है ॥२८॥ - भविष्य.


स्नान किये हुए निर्मल सुगन्धित पुरुष को देखकर स्त्रियों की योनि ऐसे टपकने लगती है जैसे मशक में से पानी ॥३१॥ - शिव.


रोमांचित हुई धर्मयुक्त स्त्री के भी काम में मत होने पर योनि में खुजली तथा जल टपकने लगता है। - ब्रह्मवैवर्त.


तब तालाब से सारी स्त्रियाँ जाड़े से काँपती हुई, दुःखी, दोनों हाथों से योनि को ढककर बाहर निकल आई॥१७॥ - भागवत.


हे शिव। यदि योनि को काफूर, मैनफल तथा शहद से भर दिया जाये तो बूढी स्त्री की योनि भी बढ़िया हो जाती है, जवान का तो कहना ही क्या॥१६॥ - गरुड.


नमस्ते इत्यादि मन्त्र को पढ़कर तेल से योनि और लिंग की मालिश करे ॥१६॥ - गरुड.


योनि को हाथ से ढककर सब गोपियाँ चलीं ॥८३॥ - ब्रह्मवैवर्त.


हम बलपूवर्क घोषणा करते हैं कि इन स्थानों में लिंग तथा योनि के अर्थ सिवाय मूत्रेन्द्रिय के और कुछ हो ही नहीं सकते, अत: आपकी उपर्युक्त प्रतिज्ञा सर्वथा निभूल तथा असत्य है।


(4) प्रश्न - 'लिंगानां च क्रमं वक्ष्ये' [शिव० विद्येश्वर० अ० १८] इत्यादि से शिवपुराण में बतलाया है कि शंकर का सूक्ष्म लिंग प्रणव ओंकार है तथा स्थूललिंग यह समस्त ब्रह्माण्ड है, फिर प्रकृति, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी और पाषाण ये शंकर के अनेक लिंग हैं। पृथिवी विकारलिंग, स्वयम्भूलिंग १. विंदुलिंग २, प्रतिष्ठा किये लिंग ३, बलिग गुरुलिंग ५, बस इतने ही लिंगों के पूजने की विधि है तथा इतने ही लिंग पूजे जाते हैं।


उत्तर - यदि आपका यह अभिप्राय हो कि ओंकार परमात्मा का वाचक होने से तथा आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी, पाषाणादि समस्त ब्रह्माण्ड अपने कर्ता ईश्वर की महिमा का वर्णन करने से, परमात्मा की महिमा के प्रकाशक होने से लिंग कहाते हैं तो इनके विषय में तो आर्यसमाज के प्रश्न ही नहीं हैं। हाँ, ये जो आप पाँच प्रकार के लिंगों की पूजा बतला रहे हैं, ये वही शिवालयों में गड़े हुए लिंगों की तरफ आपका संकेत है या ये भी कुछ और ही हैं? यदि ये कुछ और प्रकार के हैं तो आपको इनकी व्याख्या करनी चाहिए थी और यदि ये पाँच भी उन्हीं में से हैं जोकि शिवालयों में गड़े हुए हैं तो फिर आप गलत कह रहे हैं, क्योंकि उनकी उत्पत्ति पुराणों ने और ही प्रकार से वर्णन की है। शिवपुराण का एक वर्णन तो हम प्र.नं० १ में बयान कर आये हैं। दूसरी कथा जो लिंगों की पैदाइश के विषय में आती है, वह इस प्रकार है –


देवाद्या ऊचु:
भूत्वा तु दक्षकन्या त्वं शंकरं परिमोहय। अस्माकं वाञ्छितश्चैतत् कुरु सिद्धिं सदा शिवे॥१॥
एतत् श्रुत्वा वचस्तेषां निरीक्ष्य कमलासनम्। उवाच विस्मयाविष्टा कालिका जगदीश्वरी॥२॥
देव्युवाच -
शंभुरद्यतनो बाला कि मां संतोषयिष्यति। मम योग्यं पुमांसं तु अन्यं वै परिकल्पय॥३॥
ब्रह्मोवाच -
शंभुः सर्वगुरुर्देवो ह्यस्माकं परमेश्वरः। महासत्त्वो महातेजाः स ते तोषं करिष्यति ॥ ४॥
शंभुतुल्यः पुमान् नास्ति कदाचिदपि कुत्रचित् । इत्युक्ता ब्रह्मणा देवी वाढमित्याह चेश्वरी ॥५॥
सतो विवाहं निर्वर्त्य कृतकृत्या तथा गताः । गताः सर्वे महेशोऽपि सत्या सह तदा गृहम्॥६॥जगाम रेमे सत्या च चिरं निर्भरमानसः। अथ काले कदाचित्तु सत्या सह महेश्वरः ॥७॥
रेमे न शेके तं सोढुं सती प्रान्ताभवत्तदा। उवाच दीनया वाचा देवदेवं जगद्गरुम्॥८॥
भगवन्नहि शक्नोमि तव भारं सुदुःसहम्। क्षमस्व मां महादेव कृपां कुरु जगत्पते ॥९॥
निशम्य वचनं तस्या भगवान् वृषभध्वजः । निर्भर रमणं चक्रे गाढं निर्दयमानसः ॥१०॥
कृत्वा सम्पूर्णरमण सती च त्यक्तमैथुना। उत्थानाय मनश्चक्रे उभयोस्तेज उत्तमम् ॥ ११ ॥
पपात धरणी पृष्ठे तैर्व्याप्तमखिलं जगत्। पाताले भूतले स्वर्गे शिवलिंगास्तदाभवन्॥१२॥
तेन भूता भविष्याश्च शिवलिंगाः सयोनयः। यत्र लिंग तत्र योनिर्वत्र योनिस्ततः शिवः ॥१३॥
उभयोश्चैव तेजोभिः शिवलिंगं व्यजायत ॥१४॥
इति शिवलिंगोत्पत्तिकथनमिति नारदपंचरात्रान्तर्गततृतीयरात्रे प्रथमाध्याये नारदब्रह्मासंवादः।।-शब्दकल्पद्रुमः, चतुर्थो भागः, पृ० २२२, लिंग शब्द पर।


श्लोकों का भाषार्थ - देवता इकट्ठे होकर ब्रह्मा के पास गये कि हम तो विवाहित हैं, किन्तु महादेव अविवाहित है। उसका भी विवाह कराना चाहिए, यह सोचकर सब देवता ब्रहा तथा विष्णु को साथ लेकर दुर्गा के पास गये और दुर्गा से प्रार्थना की कि आप दक्ष की कन्या बनकर महादेवजी को मोहित करें। हे सदाशिवे! यही हमारी इच्छा है, आप सिद्ध कीजिए॥१॥ उनकी यह बात सुनकर ब्रह्मा की तरफ देखते हुए हैरान होकर जगदीश्वरी काली दुर्गा बोली ॥२॥ यह शम्भू आज का बालक क्या मुझे सन्तुष्ट कर सकेगा? मेरे योग्य कोई और आदमी तजवीज करें॥३॥ ब्रह्माजी बोले कि यह शम्भुदेव सबके गुरु तथा हमारे स्वामी हैं। बड़े बलवान् और वीर्यवान् हैं, यह आपकी सन्तुष्टि कर देंगे॥४॥ शम्भु के तुल्य कोई आदमी नहीं है, न ही कोई कहीं इनके तुल्य होगा। ब्रह्मा की यह बात सुनकर देवी बोली कि 'बहुत अच्छा ॥५॥ तब देवी दक्ष के यहाँ सतीरूप में पैदा हुई, तब देवता लोग विवाह से निवृत्त होकर कृतार्थ हो गये और अपने घर चले गये। महादेवजी भी सती के साथ अपने घर चले गये॥६॥ और सती के साथ रमण करके मनभर प्रसन्न हुए। कुछ दिनों के पीछे कभी महादेवजी सती के साथ ॥७॥ रमण करने लगे तो सती थक गई और महादेवजी के बोझ को सह न सकी, तब बड़ी दीन वाणी के साथ जगत् के गुरु महादेव को कहने लगी॥८॥ हे भगवन् ! मैं आपके दुःसह भार को सह नहीं सकती। हे महादेवजी! मुझे क्षमा करो। हे जगत्पते! मुझपर कृपा करो॥९॥ भगवान् महादेव ने उसके वचन को सुनकर खूब पेट भरकर निर्दयता से मैथुन किया॥१०॥ सम्पूर्ण मैथुन करके छोड़ी हुई सती ने उठने की इच्छा की, तब दोनों का उत्तम वीर्य ॥ ११ ॥ पृथिवी पर गिर पड़ा और उस वीर्य से जगत् व्याप्त हो गया। और उससे पृथिवी, स्वर्ग, पाताल में योनियोसमेत शिवलिंग पैदा हो गये॥१२॥ जितने लिंग हो चुके, जितने आगे को होंगे वे योनियों समेत इस तेज से ही पैदा हुए तथा होंगे। जहाँ लिंग होगा वहाँ योनि अवश्य होगी और जहाँ योनि होगी वहाँ शिव अवश्य होंगे। १३॥ दोनों के तेज से ही शिवलिंग पैदा हुआ॥१४॥


अब आप बतलायें कि लिंगों की पैदाइश के बारे में आपका लेख ठीक है या पुराणों का? और यहाँ पर लिंग तथा योनि मूत्रेन्द्रिय का नाम है या किसी और वस्तु का? आपका लेख 'मुदई सुस्त गवाह चुस्त' के सदृश ही है।


(5) प्रश्न - लिंग के चारों तरफ जलहरी होती है। यह जल को बाहर नहीं जाने देती, इससे इसका नाम जलहरी है। जलहरी का अपभ्रंश जलरूरी है। वह साप्तावरण का नक्शा है। ब्रह्माण्ड के चारों तरफ सात आवरण रहते हैं। वह ब्रह्माण्ड की चीज़ को बाहर नहीं जाने देते। उनका ही नक्शा यह जलहरी है, यह वेद-शास्त्रों का अभिप्राय है।


उत्तर - कृपया वेद-शास्त्रों को बदनाम और कलंकित न कीजिए, क्योंकि वेद शास्त्रों में शिवलिंग तथा जलहरी का वर्णन है ही नहीं तो फिर उनका अभिप्राय यह कैसे हो सकेगा? हाँ, पुराणों में इसका वर्णन है और पुराणों ने स्पष्टरूप से बतलाया है कि लिंग और योनि मूत्रेन्द्रिय का नाम है और उसी योनि की शक्ल जलहरी रूप में बनाकर उसमें लिंग स्थापित किया गया है। आप हजार बनावटी बातें बनायें, इससे इस बात पर पर्दा नहीं पड सकता। भला! जो जल को बाहर जाने से रोकती है, अर्थात् जल की रक्षा करती है उसका नाम जलहरी, अर्थात् जल को हरनेवाली क्योंकर हुआ? हाँ, यह अर्थ तो हो सकता है कि जो लिंग के जल अर्थात् वीर्य को हर लेती है, अत: जलहरी योनि का ही नाम है। जब लिंग ही ब्रह्माण्ड का नक्शा नहीं तो फिर जलहरी यानी योनि सप्तावरण का नक्शा कैसे होगा? अच्छा यह तो बतलायें कि शिवलिंग पर पानी डालने का क्या प्रयोजन है? आपकी यह सारी ही कल्पना मिथ्या है। वास्तव में पूर्वकथा प्र.नं० १की साफ़ बतला रही है कि शिव के लिंग को पार्वती की योनि में स्थापित किया गया और उस योनि का नाम बाण रक्खा गया। देखिए –


गिरिजां योनिरूपां च बाणं स्थाप्य शुभं पुनः। तत्र लिंग च तत्स्थाप्य पुनश्चैवाभिमन्त्रयेत् ॥ ३७॥ -शिव० कोटिरुद्र० अ० १२


भाषार्थ - गिरिजा को योनिरूप शुभ बाण (जलहरी) बनाकर उसमें लिंग का स्थापन करना चाहिए, फिर उसका अभिमन्त्रण करे॥ ३७॥


इसके अतिरिक्त (प्र.नं० ३ में भी) वर्णन है कि शिव तथा सती के वीर्य से योनिसमेत लिंग पैदा हुए। इसे अधिक स्पष्ट करने के लिए हम एक कथा नीचे और देते हैं ताकि आपकी भ्रान्ति दूर हो जावे। पढ़िए –


न शुश्रुम यदन्यस्य लिंगमभ्यर्चितं सुरैः॥ २२६ ॥
कस्यान्यस्य सुरैः सर्वैलिङ्गं मुक्त्वा महेश्वरम्।
अर्च्यतेऽर्चितपूर्वं वा ब्रूहि यद्यस्ति ते श्रुतिः ॥२२७॥
यस्य ब्रह्मा च विष्णुश्च त्वं चापि सह दैवतैः।
अर्चयेथाः सदा लिंगं तस्माच्चेष्टतमो हि सः ॥ २२८॥
न पद्मांका न चक्रांका न वज्रांका यतः प्रजा।
लिंगांका च भगांका च तस्मान्माहेश्वरी प्रजाः॥ २२९ ॥
देव्याः कारणरूपभावजनिताः सर्वा भगांकाः स्त्रियो
लिंगेनापि हरस्य सर्वपुरुषाः प्रत्यक्षचिह्नीकृताः।
योऽन्यत्कारणमीश्वरात् प्रवदते देव्या च यत्रांकितम्।
त्रैलोक्ये सचराचरे स तु पुमान् बाह्यो भवेद् दुर्मतिः ॥ २३०॥
पुल्लिंग सर्वमीशानं स्त्रीलिंगं विद्धि चाप्युमाम्।
द्वाभ्यां तनुभ्यां व्याप्तं हि चराचरमिदं जगत्॥ २३१॥* - महाभारत अनुशा० अ० १४,


भाषार्थ - हमने यह नहीं सुना कि देवताओं ने किसी और के लिंग को पूजा हो ॥ २२६ ॥ महेश्वर को छोड़कर दूसरे किसी के लिंग को सब देवताओं ने पूर्व या अब पूजा हो, ऐसा आपने सुना हो तो कहिए ॥ २२७॥ जिसके लिंग को ब्रह्मा और विष्णु तथा आप सब देवताओं के साथ सदा पूजते हैं, इसलिए वह ही इष्टतम है ॥२२८॥ प्रजा न तो पद्मचिह्नवाली है, न चक्र चिह्नवाली और न बन चिह्नवाली है अपितु सारी प्रजा लिंग तथा भग के चिह्न से अंकित है, इसलिए सारी प्रजा महादेव की है ॥ २२९ ॥ देवों ने कारणरूप-भाव से भग के चिह्न से अंकित सब स्त्रियाँ पैदा की और सारे ही पुरुष प्रत्यक्ष में महादेव के लिंग से चिहित हैं। जो महादेव से भिन्न किसी और को कारण कहता है और जो देवी से अंकित नहीं है वह पुरुष चराचर त्रिलोकी से बाहर करने के योग्य है, क्योंकि यह मूर्ख है ॥ २३०॥ जितने पुल्लिंग हैं, ये सब महादेव हैं तथा जो स्त्रीलिंग हैं वे सब पार्वती हैं। इन दोनों के शरीर से ही सारा जगत् व्याप्त है।॥ २३१ ।।
[मिलावटी गीताप्रेस संस्करण में कुछ पाठभेद से इन श्लोकों का संख्या २३० से २३५ है। - सं०]


अब तो आपको निश्चय हो गया होगा कि लिंग के चारों तरफ जो गोल वृत्त दायरा बना हुआ है वह केवल जलहरी ही नहीं है, अपितु पार्वती के भग की तस्वीर है।


(6) प्रश्न - इससे भिन्न लिंग तथा जलहरी का जो कोई मनमाना अर्थ करता है वह मिथ्या और अमान्य है।


उत्तर - पुराणों के इन प्रकरणों में लिंग तथा योनि का मूत्रेन्द्रिय ही अर्थ है। हम कितने प्रमाण दे चुके हैं और भी देते हैं, पढ़िएगा -


नित्येन ब्रह्मचर्येण लिंगमस्य यदा स्थितम्। महयन्त्यस्य लोकाश्च प्रियं होतन्महात्मनः ॥१५॥
विग्रहं पूजयेद्यो वै लिंगं वापि महात्मनः । लिंग पूजयिता नित्यं महतीं श्रियमश्नुते॥१६॥
ऋषयश्चापि देवाश्च गन्धर्वाप्सरस्तथा। लिंगमेवार्चयन्ति स्म यत्तदूर्ध्वं समास्थितम् ॥ १७॥ - महा० अनुशा० अ० १६१ (मिलावटी गीताप्रेस)


भाषार्थ - इसका लिंग नित्य ब्रह्मचर्य में स्थित है और लोग उसको पूजते हैं, महात्माओं को यही प्रिय है॥१५॥ जो महात्मा के शरीर को पूजता है या महात्मा के लिंग को पूजता है वह बड़ी भारी सम्पत्ति को प्राप्त होता है॥ १६ ॥ ऋषि और देवता, गन्धर्व और अप्सराएँ उसी लिंग की पूजा करते थे, जो ऊपर को खड़ा है॥१७॥


इस प्रमाण में लिंग का 'ब्रहाचर्य से रहना' तथा 'ऊपर को खड़ा हुआ' ये दोनों विशेषण सिद्ध करते हैं कि जिस लिंग की पूजा होती है वह महादेव की मूत्र-इन्द्रिय ही है, कोई और वस्तु नहीं है। जब लिंग नाम मूत्र-इन्द्रिय का है तो इसके सहयोग से योनि नाम भी पार्वती की मूनेन्द्रिय का ही है और उसी की पौराणिक लोग पूजा करते हैं। हम इस बारे में एक अन्तिम प्रमाण और देते हैं, जिससे आपकी पूर्ण तसल्ली हो जावेगी। देखिए –


कदाचिद्भगवानत्रिर्गङ्गाकूलेऽनसूयया ॥६७॥
तस्य भावं समालोक्य त्रयो देवाः सनातनाः।
अनसूयां तस्य पत्नी समागम्य वचोऽब्रुवन् ॥ ७०॥
लिंगहस्तः स्वयं रुद्रो विष्णुस्तद्रसवर्द्धनः ।
ब्रह्मा कामब्रह्मलोपः स्थितस्तस्या वशं गतः।
रतिं देहि मदाघूर्णे नोचेत्प्राणाँस्त्यजाम्यहम्॥७१॥
मोहितास्तत्र ते देवा गृहीत्वा तां बलात्तदा।
मैथुनाय समुद्योगं चक्रुर्मायाविमोहिताः ॥७३॥
तदा कुद्धा सती सा वै तान् शशाप मुनिप्रिया ।। ७४॥
महादेवस्य वै लिंगं ब्रह्मणोऽस्य महाशिरः ।
चरणौ वासुदेवस्य पूजनीया नरैः सदा।
भविष्यन्ति सुरश्रेष्ठा उपहासोऽयमुत्तमः ॥७५ ॥ - भविष्य० प्रति० पर्व ३ अ० १७


भाषार्थ - कभी भगवान् अत्रि अपनी धर्मपत्नी अनसूया के साथ गङ्गा के किनारे रहते थे॥६७ ॥ उसके भाव को देखकर सनातनधर्म के तीनों देवता उसकी पत्नी अनसूया को यह बात कहने लगे॥७० ॥ हाथ में लिंग लिये हुए महादेवजी और विष्णु उसके रस को बढ़ाते हुए तथा ब्रह्माजी कामवश वेद का लोप करते हुए उस अनसूया के वश में होकर स्थित हो गये। हे मस्त आँखोंवाली। हमें जवानी का दान कर, वरना हम प्राण छोड़ते हैं ॥७१ ॥ मोहित होकर वहाँ ये देवता अनसूया को जबरन पकड़कर मैथुन करने के लिए यत्न करने लगे।॥७३॥ तब उस मुनिपनी ने क्रोध में आकर उनको शाप दिया।।७४ ॥ कि संसार में महादेवजी का लिंग, ब्रह्मा का सिर और विष्णु के चरण मनुष्यों से पूजे जायेंगे और हे देवताओं! तुम्हारा उपहास होगा ।। ७५ ॥


इस प्रमाण में सिर और पाँव के सहयोग से लिंग भी शरीर के अंग मूत्रेन्द्रिय का ही नाम है और किसी वस्तु का नाम नहीं है।


पुराणों के इन तमाम प्रमाणों से सिद्ध है कि शिवालयों में जो नीचे गोल आकार का दायरा है वह पार्वती की भग तथा जो गोल-गोल मूसल-सा गड़ा हुआ है वह शिव का लिंग है और पौराणिक लोग इनकी पूजा करते हैं।


 


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AAP LEKHAK SA SAMPARK KAR SAKTE HO