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 ग्रामीण क्षेत्र की उपयोगिता, ग्रामीण पंचायत लघु राज्य होता है !

फ्यूचर लाइन टाईम्स, दिनांक 22 सितम्बर 2019,डा.अशोक आर्य : विश्व का प्रत्येक राज्य कृषि की व्यवस्था के बिना उत्तम नहीं हो सकता | देश के सब क्रिया व्यापार का केंद्र कृषि ही होती है । हमने चाहे भरण पौषण का कार्य करना हो चाहे ओद्योगिक विकास का या फिर व्यापार का, सब का आधार कृषि ही होती है | कृषि  का आधार गाँव होते हैं । इसलिए यदि हमारी ग्रामीण राज्य व्यवस्था उत्तम नहीं है तो कृषि फल फूल ही नहीं सकती । जब कृषि विकसित नहीं है , लाभदायक नहीं है तो राज्य का विकास संभव ही नहीं है । इस लिए वेद ने ग्रामीण व्यवस्था को चुस्त दुरुस्त बनाने का आह्वान किया है । वेद में उपदेश इस प्रकार किया गया है :-
                 ग्रामण्यं गणकाम्भक्रोशकं तान्महसे ।। यजुर्वेद ३०.२० ।।
             यजुर्वेद के इस मन्त्र के माध्यम से उपदेश किया गया है कि देश में बड़े बड़े व्यवसाय होते हैं । इस बड़े व्यवसायों के लिए अर्थात् इस प्रकार के राज्य प्रबंध के लिए अनेक उत्तम अधिकारियों की आवश्यकाता होती है , जो सब व्यवस्था ठीक प्रकार से कर सकें यथा गणक अर्थात् वस्तुओं की गणना करने वाला, माप तौल करने वाला, एसा चतुर व्यक्ति , जो सब प्रकार का हिसाब किताब ठीक से कर सके , इस के अतिरिक्त जो तीसरी प्रकार का अधिकारी होता है, वह है सब को बुलाने वाला अर्थात् इस व्यवसाय को आगे बढाने के लिए वह व्यक्ति जिस में सब प्रकार के व्यापारियों को बुलाने की क्षमता हो । यह तीन कोटि के अधिकारी हों तब ही वस्तुओं का ठीक से वितरण हो कर सब तक पहुँचना संभव होता है तथा इस प्रकार के व्यापार में देश की उतम व्यवस्था ही इसे आगे ले जाकर लाभकारी बना सकता है ।  अथर्ववेद का मन्त्र १९.३१.१२ भी यह उद्घोषणा कर रहा है कि ग्रामीण व्यवस्था को अग्रणी बनने के लिए आवश्यक है कि ग्राम नायक अपने अनतर्गत आने वाले सब लोगों को तेज और एश्वर्य से युक्त करने का उपदेश है अर्थात् ग्राम का नायक अपने अंतर्गत आने वाली प्रजा को उतम उपदेश से तेजस्वी बनाए , ऐसा तेजस्वी कि वह अपनी कृषि को उतम बना कर  , उन्हें पुरुशार्थी बनने की प्रेरणा करे ताकि अहोरात्र परिश्रम से वह अत्यधिक फल प्राप्त करे । इस प्रकार वह विपुल धन एश्वर्य के स्वामी बनें । मन्त्र उपदेश कर रहा है :-
         ग्रामणीरसि ग्रामणीरुत्थायाभिशिक्तोSभि माँ सिञ्च वर्चसा ।
         तेजोSसि   तेजो  मयि  धारयाधि  रयिरसि  में  धेहि  ।। अथर्ववेद १९.३१.१२  ।।
         इस मन्त्र में स्पष्ट उपदेश किया गया है  कि जो व्यक्ति गाँव का नायक बनना चाहता है , जो गाँव की व्यवस्था की जिम्मेवारी लेने का इच्छुक है , गाँव की व्यवस्था का व्यवस्थापक बनना चाहता है , इस प्रकार के व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि वह अग्रणी होने के गुण अपने में धारण किये हुए हो । उसमें इतनी क्षमता हो कि वह अपने आह्वान मात्र से ही अपने अंतर्गत आने वाली सब प्रजा को तेजस्वी बना दे , उस में इस प्रकार का तेज पैदा कर दे कि वह दिन रात मेहनत करें , पुरुषार्थ करें उसमें एसा तेज भर दे कि प्रत्येक व्यक्ति दिन रात पुरुषार्थ करते हुए अत्यधिक सुन्दर , उतम वस्तुओं को अपने खेतों में पैदा करे , सब लोग अत्यधिक पुरुषार्थी बन कर दिन रात मेहनत करते हुए उतम फल अर्थात् उन्नत अनाज आदि को पैदा करें, इस सब के व्यापार से न केवल किसान को ही अपितु देश के व्यापारी वर्ग को भी अत्यधिक लाभ हो तथा इस से प्राप्त कर के माध्यम से राज्य का कोष भी लबालब भर जावे इस के परिणाम स्वरूप प्रजा व राज्य के कोष भर जावें , परिणाम स्वरूप सब और समृद्धि के दर्शन हों । 
          मन्त्र के आलोक में इन वैदिक उपदोशों , आदेशों के आलोक में जो अनुकरणीय ग्रामीण शासन व्यवस्था रही है इस विषय के प्रामाणिक विद्वान् सर चार्ल्स मेटकाफ ने इस प्रकार प्रकाश डाला है :-
           ग्रामीण पंचायत एक प्रकार से लघु राज्य होता है , जो प्रजातंत्रात्मक पद्धति का आधार होता है । इस के पास अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने की सब वस्तुएं होती हैं । इतना ही नहीं यह सब विदेशी शासन से साधारणतया बिलकुल स्वतन्त्र होते हैं । यह ग्रामीण समुदाय अथवा यह ग्रामीण पंचायतों का समूह या समुदाय , वास्तव में एक छोटी सी रियासत , छोटी सी सत्ता का ही रूप होती है । यह ही हिन्दुओं की प्रसन्नता का कारण है । इतना ही नहीं यह ग्रामीण पंचायत स्वतंत्रता को बहुत अंश तक लाने वाला है ।
          इन शब्दों में विद्वान् विचारक का कहना है कि भारतीयों की उन्नति व सफलता का कारण यह ग्रामीण पंचायतें ही रही हैं   इन पंचायतों ने ही देश को एक डोर से बांधे रखा । यह पंचायतें ही इन के संगठन का कारण रहीं ।
          मेटकाफ इस सम्बन्ध में आगे लिखते हैं कि विदेशी राज्य में विशेष रूप से ब्रिटिश राज्य में इन पंचायतों को नष्ट कर दिया गया था । स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात उन्हें पुनर्जीवित किया गया है, हमारे लिए यह प्रसन्नता का विषय है । ग्रामों की शिक्षा की अत्यंत न्यूनता तथा पारस्परिक कलहों के कारण खेद है कि यह पंचायतें अपने उद्देश्यों का पूर्ण रूप से प्राप्त करने में सफल नहीं हो रहीं ।  
           मेटकाफ का कहना है कि अंग्रेज जानता था कि जब तक यहाँ ग्रामीण पंचायतें रहेंगी तब तक उनकी सत्ता स्थायी नहीं रह सकती इसलिए उसने सब से इन ग्रामीण पंचायतों पर आक्रमण किया तथा इन्हें समाप्त करने के साथ ही उसने श्री और ग्रामीण के मध्य की इस कड़ी को नष्ट कर देश में वर्ग भेद पैदा किया और अपनी सत्ता को स्थिर किया किन्तु भारत के स्वाधीन होने के साथ ही इस ग्रामीण व्यवस्था को फिर से आरम्भ कर दिया गया उन्होंने इस पर दू:ख भी प्रकट किया क्योंकि पराधीनता काल में इन में इतना स्वार्थ आ गया ।
            इस प्रकार के झगड़ों ने, स्वार्थ ने ग्राम पंचायतों की व्यवस्था को भी कमजोर कर दिया तथा प्रगति में बाधा आने लगी । आज आवश्यकता है कि सब लोग अपने कर्तव्यों को समझते हुए इन ग्राम पंचायतों में निस्वार्थ काम करते हुए इन को मजबूत करें तथा ग्राम को ही नहीं समग्र देश को प्रगति पथ पर ले जावें । 


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