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विकास का असमान चेहरा — जब प्राधिकरण बना डीलर और गांव बने मलिन बस्तियां!

राष्ट्रीय दैनिक फ्यूचर लाइन टाईम्स मनोज तोमर ब्यूरो चीफ की विशेष संपादकीय रिपोर्ट।

नौएडा। ग्रेटर नोएडा और नौएडा प्राधिकरण की विकास नीतियों की चमकदार तस्वीर के पीछे एक कड़वा सच छिपा है। एक ओर सेक्टरों में सड़कों, रोशनी, हरियाली और सफाई का सुचारु प्रबंधन दिखाई देता है, वहीं दूसरी ओर प्राधिकरण के अधीन आने वाले ग्रामीण इलाकों — जैसे सुरजपुर, गेझा, सलारपुर, लाहबास, रोजा, जलालपुर, धूम, तिलपता, धपरौला, जलालपुर, सादुल्लापुर, झट्टा, बदोली, ममूरा, मौरना और अन्य गांव — अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहे हैं। यह विडंबना ही है कि जिन किसानों ने अपनी उपजाऊ जमीन देकर इस शहर को आकार दिया, वही आज बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं।

ग्रेटर नोएडा और नौएडा प्राधिकरण अब विकास का नहीं बल्कि “डीलिंग” का केंद्र बन गया है। यह संस्थान अब एक ऐसे कारोबारी रूप में बदल चुका है जो भूमि और योजनाओं से मोटा मुनाफा कमाने का जरिया बन गया है। प्राधिकरण के क्षेत्र में खुल रहे निजी अस्पतालों और विद्यालयों की चमकदार इमारतों के पीछे एक बड़ा सवाल खड़ा है — आखिर किसान कोटा और निम्न आय वर्ग के बच्चों का प्रवेश इन संस्थानों में क्यों असंभव बना हुआ है?प्राधिकरण की रिलीज़ डेट में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि सभी निजी संस्थानों को गरीब और किसान वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित सीटें उपलब्ध करानी होंगी, अन्यथा उनके लाइसेंस निरस्त कर दिए जाएंगे। लेकिन आज तक किसी भी संस्था पर ऐसी कार्रवाई का उदाहरण नहीं मिला। नियम केवल फाइलों में दबे हैं, और प्राधिकरण के अधिकारी सिर्फ औपचारिक जांचों तक सीमित हैं।प्राधिकरण की भूमिका अब विकास से अधिक ‘दलाली’ तक सिमट चुकी है। जमीनों की खरीद-बिक्री में बिचौलियों की मिलीभगत से बड़े स्तर पर मुनाफाखोरी हो रही है। अधिकारी विकास योजनाओं की बजाय अपने निजी हित साधने में जुटे हैं। इसी का परिणाम है कि गरीब और मध्यम वर्ग के लिए आज तक कोई भी सस्ती आवासीय योजना धरातल पर नहीं उतरी।ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति तो और भी भयावह है। गांवों में टूटी सड़कों, खुले नालों, गंदगी और जलभराव के कारण जीवन दूभर हो गया है। रोजा जलालपुर और बड़ौली जैसे गांव देखकर लगता है मानो वहां मनुष्य नहीं बल्कि भूले-बिसरे नागरिक रहते हों। सफाई व्यवस्था, बिजली, जलापूर्ति जैसी बुनियादी सुविधाओं की घोर कमी है।वहीं, दूसरी ओर प्राधिकरण के उच्चाधिकारी जब ग्रामीण इलाकों का दौरा करते हैं, तो केवल फोटो खिंचवाकर लौट जाते हैं। वास्तविक समस्याओं को नज़रअंदाज़ करना अब उनकी आदत बन चुकी है। गांवों में वर्षों से अधूरे पड़े विकास कार्य केवल कागजों पर पूरे दिखा दिए जाते हैं।अवैध कालोनियों का फैलता जाल भी प्राधिकरण की नाकामी का बड़ा उदाहरण है। जहां गरीब आदमी अपनी बचत से एक छोटा-सा प्लॉट लेने को मजबूर है, वहीं इन अवैध बस्तियों में कोई ठोस योजना या सुविधाएं नहीं हैं। प्राधिकरण की निगरानी और योजना विफलता का यह सबसे बड़ा प्रमाण है।आज जरूरत है कि प्राधिकरण अपनी भूमिका को “डीलरशिप” से बाहर निकालकर “जनविकास” के असली अर्थ में उतरे। विकास केवल सेक्टरों की सीमाओं में नहीं, बल्कि गांवों की गलियों तक पहुंचना चाहिए। किसानों और निम्न आय वर्ग के नागरिकों को उनका हक मिलना ही सच्चे अर्थों में प्रगति का प्रतीक होगा। यदि अब भी प्राधिकरण ने अपनी नीतियों और दृष्टिकोण में सुधार नहीं किया, तो यह असमान विकास मॉडल आने वाले वर्षों में सामाजिक असंतुलन और आक्रोश को जन्म देगा। विकास तभी सार्थक है जब शहर और गांव दोनों साथ-साथ आगे बढ़ें — वरना यह “स्मार्ट सिटी” केवल कागज़ों में ही स्मार्ट कहलाएगी।

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