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लेखक : डी.पी. सिंह बैसला, मुजफ्फरनगर, दान सनातन संस्कृति की वह महान परंपरा है जिसे हमारे ऋषि-मुनियों ने जीवन की आधारशिला माना है। दान केवल देने की क्रिया नहीं, बल्कि आत्मा की अनुभूति, प्रसन्नता और परमात्मा की प्रेरणा से उत्पन्न ऊर्जा है। जब कोई व्यक्ति स्वेच्छा से या संकट निवारण हेतु दान करता है, तो वह तुरंत क्रियाशील होकर फल देता है।
दान की गोपनीयता और नियम
शास्त्रों में कहा गया है – जिस देश, काल और परिस्थिति में जिस वस्तु का अभाव हो, वही वस्तु श्रद्धा से दान करनी चाहिए। दान करते समय दाहिने हाथ से देने की बात कही गई है ताकि बायां हाथ भी न जान पाए। इसका कारण यह है कि दान से उत्पन्न ऊर्जा गोपनीय रहती है, जिसे सार्वजनिक करने पर उसका प्रभाव घट जाता है। दान के बाद मन, वाणी और व्यवहार में स्वतः प्रसन्नता का संचार होता है।
संकल्पपूर्वक दान का महत्व
यदि दान परमेश्वर के भंडार में दिया जा रहा है, तो बिना किसी मांग के देना श्रेष्ठ है। लेकिन देव-देवियों के यज्ञ या भंडारे में दिया गया दान संकल्पपूर्वक होना चाहिए। दान कभी भी व्यर्थ के आडंबर, सजावट, ध्वनि प्रदूषण या पटाखों पर नहीं देना चाहिए। यह भी सुनिश्चित करना आवश्यक है कि दान का उपयोग भंडारे या हवन-होम जैसे पवित्र कार्यों में हो।
दान का चिरस्थायी फल
शास्त्र कहते हैं कि देव-देवियों को दिया गया द्रव्य कभी नष्ट नहीं होता। यह शक्ति जन्म-जन्मांतर तक जीवात्मा के साथ रहती है। परमेश्वर के भंडार में दिया गया दान यदि पाप से दूषित हो जाए तो उसका फल नष्ट हो सकता है, किंतु संकल्पपूर्वक देवों को दिया गया दान स्थायी ऊर्जा का स्रोत बनकर जीवन में सहायक रहता है।
निष्कर्ष
दान केवल धन से नहीं, बल्कि वाणी और श्रम से भी किया जा सकता है। सही ज्ञान और विधि से किया गया दान जीवन को आध्यात्मिक बल, प्रसन्नता और दिव्य ऊर्जा प्रदान करता है। इसलिए, हर दान विवेक, गोपनीयता और संकल्पपूर्वक होना चाहिए।
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