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अस्तित्व के लिए संघर्षरत राजधानी की पहाड़ी गुर्जरी संस्कृति।

लेखक आर्य सागर तिलपता ग्रेटर नोएडा। चतर चंदीला, बैळ (अड़ियल) भड़ाना, भोला तंवर और मर्द खटाना।।
( कतिपय  गुर्जर गोत्रों के संबंध में प्रचलित प्रसिद्ध लोक गुजरी कहावत)
अरावली देश की सबसे प्राचीन पर्वतमाला है जिसके आंचल में दिल्ली से लेकर गुजरात तक भिन्न-भिन्न भाषा भाषी या बोली बोलने वाले समूह संस्कृतियां, जैव विविधता फली फूली है। प्राचीन भारतीय या वैदिक संस्कृति पहाड़ों  वनों में ही-फली फूली। अरावली व हिमालय की उपत्यका इसके  पर्वतीय वनों मैदानों में उपनिषद अरण्यक श्रोत सूत्र आदि ग्रंथ लिखे गए, वेद ज्ञान की सुरभि चहुंओर यहीं से फैली वैदिक कालीन पाराशर आदि अनेक ऋषि-मुनियों के आश्रम के ऐतिहासिक साक्ष्य अरावली पर मिलते हैं। भला जो संस्कृति पर्वतों वनों से ही परिपक्व हुई हो वह उन पर्वतों पर अतिक्रमण कैसे कर सकती है?
अंग्रेज  जब इस देश में आए तो उनके समक्ष उनकी अमानवीय दमनकारी नीतियों का सर्वाधिक प्रतिरोध इसी पहाड़ी वन प्रधान संस्कृति ने किया चाहे छत्तीसगढ़ के मुंडा गोंड वनवासी  हो या राजस्थान की अरावली के भील, दिल्ली के पहाड़ के निवासी गुर्जर हो।
औपनिवेशिक भारतीय वन अधिनियम, पशु अतिचार अधिनियम जैसे काले कानून अंग्रेजो ने रूल आफ लॉ के नाम पर बनाये। 19वीं सदी के समाज सुधारको में आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद ने अंग्रेजों के इस षड्यंत्र को सर्वप्रथम भांप लिया उनकी नीतियों का विरोध किया उन्होंने। कहा --यह नोन और पोन पर जो कर है यह उचित नहीं है नोन (नमक) और पोन (रोटी)के बगैर दरिद्र का भी गुजारा संभव नहीं है नोन अर्थात नमक, पोन अर्थात वन्य उपज से अर्जित आजीविका रोटी आदि। आज आजाद भारत में उनके मानस पुत्र उन्हीं काले कानून के नाम पर आठवीं शताब्दी में दिल्ली के महान शासक अनंगपुर तंवर या तोमर के द्वारा स्थापित अनंगपुर गांव को अतिक्रमण की आड़ रूल ऑफ़ लॉ के नाम पर में उजाड़ रहे है उल्लेखनीय होगा अनंगपाल तंवर जिनके नाम से अनंगपुर गांव स्थापित है उन्होंने अरावली के जल को सहजने के लिए दुनिया का पहला ग्रेविटी डैम अनंगपुर बांध बनाया कालांतर में इन्हीं के ही एक वंशज राजा सूरजपाल ने सूरजकुंड का निर्माण कराया। अनंगपुर जैसे गांव के रुप में न्यायिक सक्रियतावाद की आड़ में सदियों वर्ष पुरानी एक पहाड़ी संस्कृति को खत्म कर रहे हैं जो अरावली की पर्वतमाला में सभ्यता के आदिकाल से फली फुली। इसी अंनगपुर गांव के पहाड़ में 25 लाख साल पुराने शैल चित्र पत्थर के औजार भी मिले हैं पुरातात्विक अनुसंधान में अरावली कभी भी मानवीय उपस्थिति हस्तक्षेप से मुक्त नहीं रही है। बात हम अनंगपुर गांव की करें तो यह गांव शुरू से ही पशुपालन व खेती पर निर्वहन करने वाला गांव रहा है इस गांव के ग्वालो की भी अपनी एक भिन्न लोक संस्कृति रही है गोजरी भाषा रही है, कुछ इतिहासकार बताते हैं दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पराभव के पश्चात अनंगपुर वासियों ने अपनी सैन्य पहचान का परित्याग कर दिया आजीविका के लिए खेती व पशुपालन को अपनाया। फरीदाबाद के अरावली या बल्लभगढ़ तहसील के गांव का इतिहास दिल्ली के इतिहास से भिन्न नहीं है अंग्रेजों से पूर्व यह समूचा इलाका जिसमें गुरुग्राम का भी पहाड़ी आंचल शामिल है दिल्ली राजधानी के अधीन शाशित होता था। इंपीरियल गजेटियर के खंड एक के अनुसार दिल्ली का इतिहास व फरीदाबाद का इतिहास एक ही है।
अनंगपुर  का मामला देश में अतिक्रमण के अन्य किसी मामलों की गणना में शामिल किए जाने योग्य नहीं है यह शहरीकरण के रूप में उभरता हुआ अतिक्रमण नहीं है यह एक पहाड़ी संस्कृति का ही आवासीय विस्तार है बढ़ते जनसंख्या विस्फोट व संसाधनों के सिमटने के कारण। अंनगपुर वासी खुद आज इससे पीड़ित है जब हरियाली को बढ़ावा देने के नाम पर दिल्ली व हरियाणा की सरकार ने अरावली जैसी प्राचीन पर्वतमाला में विलायती कीकर जैसे विदेशी खरपतवार पर्यावरण के शत्रु पौधे  के बीजों का छिड़काव किया आज अरावली के मूल देसी औषधि वनस्पति महत्व के वृक्ष  लुप्त हो गए हैं , उल्लेखनीय होगा अरावली के ही फरीदाबाद के मांगर गांव में गुग्गुल जैसी दुर्लभ औषधि के वृक्ष भी प्राकृतिक रूप से पाए जाते थे लेकिन आज जहां देखो वहां विलायती कीकर का जंगल नजर आता है जिसकी  एनवायरमेंट से जुड़ी स्टडीज में हानिकारकता सिद्ध हो चुकी है।अरावली को कीकर से मुक्त किया जाना था कार्य तो इस दिशा में होना चाहिए था जिसके कारण ग्रामवासी व जैव विविधता भी प्रभावित हुई। सर्वोच्च न्यायालय को एक पहाडी संस्कृति का आवासीय सहज विस्तार अतिक्रमण नजर आता है लेकिन जहां इसी अरावली के आंचल में गुरुग्राम से लेकर राजस्थान के इंडस्ट्रियल इलाके में अनेको  जमीन बिल्डरों प्रदूषणकारी उद्योगों को आवंटित कर दी गई खनन के ठेके अलग से वहां अतिक्रमण दिखाई नहीं देता।दुखद आज भी ग्राम्य संस्कृति वनवासियों के विरोधी मानसिकता जो औपनिवेशिक काल की देन है भारतीय शीर्ष संवैधानिक संस्थानों में रच बस गई परिलक्षित होती है।
जिस समुदाय ने सदियों तक अरावली को मां की तरह पूजा हो पहाड़ वन को  ' बनी' कहकर श्रद्धा की दृष्टि से देखा हो ग्वालो ने जहां बैठकर होली दीपावली जैसे त्योहार मनाए हो । हजारों पीढ़ियों ने अरावली में भरा पूरा जीवन बिताया हो वह संस्कृति या उसके संवाहक गांववासी कैसे अतिक्रमणकारी हो सकते हैं। फरीदाबाद अनगपुर के आसपास यदि अरावली में अतिक्रमण के मानदंड पर कोई खरा उतरता है तो वह है पूंजीवादी बिल्डर नेताओं के गठजोड़ से बने यूनिवर्सिटी कॉलेज फार्म हाउस आदि आदि। अरावली में बसे गांव दिल्ली की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है । जहां संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व विरासत और संस्कृतियों के संरक्षण की बात करता है अनेक चार्टरों में इसका प्रावधान है वहीं हरियाणा राज्य की कार्यपालिका देश की राजधानी की नाक तले इन नियमों का उल्लंघन कर रही है। अरावली को सर्वाधिक नुकसान खनन से पहुंचा यह एक साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी जानता है एक ग्रामवासी के पास इतने संसाधन नहीं हो सकते कि वह  खनन कर सके खनन के लिए भी पूंजीवादी व्यवस्था अरावली में जिम्मेदार रही है। इन सभी कारकों की उपेक्षा कर एक गांव को उजाड़ने में लग जाना भारतीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य का किसी भी दृष्टि से सूचक नहीं है। अब लोकहित के इस विषय पर अधिक विलंब नहीं होना चाहिए अविलंब भारत की संसद को मानसूनकालीन सत्र में इस मुद्दे पर व्यापक विचार करना चाहिए ध्यान रहे पर्वतीय वनवासी संस्कृति का कभी भी पुनर्वास नहीं होता वह जहां है उसे यथावत वही संरक्षित किया जाता है, अनंगपुर कोई साधारण अर्धशहरी या शहरी ग्राम नहीं है यह एक प्राचीन लोक संस्कृति का प्रतिनिधि पहाड़ी गांव है।
लेखक आर्य सागर तिलपता ग्रेटर नोएडा।

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