राजेश बैरागी-
कृषि योग्य भूमि की घटती उपजाऊ क्षमता और रासायनिक खाद व कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोगों से प्रदूषित होते जल, जंगल, जमीन के बावजूद किसानों की बढ़ती निर्धनता के बीच क्या जैविक (ऑर्गेनिक) खेती कोई उम्मीद जगाती है? खासतौर पर परंपरागत तरीके से खेती करने वाले लघु व सीमांत किसानों के लिए जैविक खेती क्या किसी आश्चर्यजनक बदलाव का साधन बन सकती है।
उपरोक्त सभी सवाल न केवल कश्मीर से कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण भारत में बल्कि पूरी दुनिया में पूछे जा रहे हैं। खेती को खानदानी और मजबूरी का पेशा बताने के दिन बहुत जल्द लद सकते हैं। ऐसा जैविक (ऑर्गेनिक) खेती के माध्यम से हो सकता है। दरअसल जैविक खेती और कुछ नहीं प्रकृति के साथ सहज संबंध स्थापित कर खेती करने का ही दूसरा नाम है। बीते दिन गांव बेहट(स्याना बुलंदशहर) में पद्मश्री ब्रजभूषण त्यागी जी के साप्ताहिक प्रशिक्षण कार्यक्रम में हिस्सा लेने का मौका मिला। उन्होंने जिस प्रकार बहुफसलीय जैविक खेती की विधि व एक फसल किस प्रकार दूसरी फसल की खुद ब खुद कीटनाशक व खाद बन जाती है के बारे में जो बताया वह अद्भुत था। उन्होंने बताया कि किसान जमींदार होने के बावजूद व्यापारियों व राजनीतिक दलों के हाथ का खिलौना बन गया है। हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद उसकी फसल पर उसका कोई अधिकार नहीं होता। मशीनरी, रासायनिक खाद व कीटनाशकों के अनावश्यक उपयोग ने उसकी कमर तोड़ दी है जबकि जैविक खेती में अच्छी और निरंतर उपज होने के बावजूद इन चीजों की कोई जरूरत ही नहीं पड़ती। उन्होंने यह भी कहा कि बहुफसली जैविक खेती में प्राकृतिक प्रकोपों का भी बहुत प्रभाव नहीं पड़ता ( फ्यूचर लाईन टाईम्स हिंदी समाचार अखबार)
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