आदिवाराह चक्रवर्ती गुर्जर सम्राट मिहिभोज प्रतिहार की जयंती ग्वालियर में गुर्जर समाज धूमधाम से 1 सितंबर को शिवपुरी। लिंक रोड़ शीतला तिराहा कीडीज कॉर्नर स्कूल के सामने टेकरी मंदिर पर मिहिरोत्सव के रूप में मनाएगा (ग्वालियर सम्राट मिहिरभोज की उपराजधानी थी एवं इससे पहले इनके पिता नागभट्ट का भी ग्वालियर पर शासन रहा है )
गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का जन्म सम्राट रामभद्र की महारानी अप्पा देवी के द्वारा सूर्यदेव की उपासना के प्रतिफल के रूप में हुआ माना जाता है। सम्राट मिहिर भोज के बारे में इतिहास की पुस्तकों के अलावा बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। मिहिर भोज ने 836 ईस्वीं से 885 ईस्वीं तक 49 साल तक राज किया। मिहिर भोज के साम्राज्य का विस्तार आज के मुलतान से पश्चिम बंगाल में गुर्जरपुर तक अैर कश्मीर से कर्नाटक तक था। मिहिर भोज के साम्राज्य को तत्कालीन समय में गुर्जर देश के नाम से जाना जाता था। सम्राट मिहिर भोज बलवान, न्यायप्रिय और धर्म रक्षक सम्राट थे। मिहिर भोज शिव शक्ति के उपासक थे। स्कंध पुराण के प्रभास खंड में भगवान शिव के प्रभास क्षेत्र में स्थित शिवालयों व पीठों का उल्लेख है। गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के काल में सोमनाथ को भारतवर्ष के प्रमुख तीर्थ स्थानों में माना जाता था। प्रभास क्षेत्र की प्रतिष्ठा काशी विश्वनाथ के समान थी। स्कंध पुराण के प्रभास खंड में गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के जीवन के बारे में विवरण मिलता है। मिहिर भोज के संबंध में कहा जाता है कि वे सोमनाथ के परम भक्त थे उनका विवाह भी सौराष्ट्र में ही हुआ था। उन्होंने मलेच्छों से पृथ्वी की रक्षा की। 50 वर्ष तक राज्य करने के पश्चात वे अपने बेटे महेंद्र पाल को राज सिंहासन सौंपकर सन्यासवृति के लिए वन में चले गए थे। गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का सिक्का जो गुर्जर देश की मुद्रा था उसको गुर्जर सम्राट मिहिर भोज ने 836 ईस्वीं में कन्नौज को गुर्जर देश की राजधानी बनाने पर चलाया था। गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के महान के सिक्के पर वाराह भगवान जिन्हें कि भगवान विष्णू के अवतार के तौर पर जाना जाता है। वाराह भगवान ने हिरण्याक्ष राक्षस को मारकर पृथ्वी को पाताल से निकालकर उसकी रक्षा की थी। गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का नाम आदि वाराह भी है। ऐसा होने के पीछे दो कारण हैं पहला जिस प्रकार वाराह भगवान ने पृथ्वी की रक्षा की थी और हिरण्याक्ष का वध किया था ठीक उसी प्रकार सम्राट भोज ने मलेच्छों को मारकर अपनी मातृभूमि की रक्षा की। दूसरा कारण गुर्जर सम्राट का जन्म वाराह जयंती को हुआ था जोकि भादों महीने की शुक्ल पक्ष की तृतीय( तीज) ( वराहा जयंती के दिन) को होती है। इस दिन के 1 दिन बाद महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी का उत्सव प्रारंभ हो जाता है। जिन स्थानों पर गुर्जरों को सम्राट भोज के जन्मदिवस का पता है वे इस वाराह जयंती को बड़े धूमधाम से मनाते हैं। जिन भाईयों को इसकी जानकारी नहीं है आप उन लोगों के इसकी जानकारी दें और गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का जन्मदिन बड़े धूमधाम से मनाने की प्रथा का चालू करें।
अरब यात्रियों ने किया सम्राट मिहिर भोज का यशोगान
अरब यात्री सुलेमान ने अपनी पुस्तक सिलसिलीउत तुआरीख 851 ईस्वीं में लिखी जब वह भारत भ्रमण पर आया था। सुलेमान गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के बारे में लिखता है कि गुर्जर सम्राट की बड़ी भारी सेना है। उसके समान किसी राजा के पास उतनी बड़ी सेना नहीं है। सुलेमान ने यह भी लिखा है कि भारत में गुर्जर सम्राट मिहिर भोज से बड़ा इस्लाम का कोई शत्रू नहीं है। मिहिर भोज के पास ऊंटों, हाथियों और घुडसवारों की सर्वश्रेष्ठ सेना है। इसके राज्य में व्यापार, सोना चांदी के सिक्कों से होता है। यह भी कहा जाता है कि उसके राज्य में सोने और चांदी की खाने भी हैं। गुर्जर देश भारतवर्ष का सबसे सुरक्षित क्षेत्र है। इसमें डाकू और चोरों का भय नहीं है। मिहिर भोज राज्य की सीमाएं दक्षिण में राजकूटों के राज्य, पूर्व में बंगाल के पाल शासक और पश्चिम में मुलतान के शासकों की सीमाओं को छूती है। शत्रू उनकी क्रोध अग्नि में आने के उपरांत ठहर नहीं पाते थे। धर्मात्मा, साहित्यकार व विद्वान उनकी सभा में सम्मान पाते थे। उनके दरबार में राजशेखर कवि ने कई प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की। कश्मीर के राज्य कवि कल्हण ने अपनी पुस्तक राज तरंगणी में गुर्जराधिराज मिहिर भोज का उल्लेख किया है। उनका विशाल साम्राज्य बहुत से राज्य मंडलों आदि आदि में विभक्त था। उन पर अंकुश रखने के लिए दंडनायक स्वयं सम्राट द्वारा नियुक्त किए जाते थे। योग्य सामंतों के सुशासन के कारण समस्त साम्राज्य में पूर्ण शांति व्याप्त थी। सामंतों पर सम्राट का दंडनायकों द्वारा पूर्ण नियंत्रण था। किसी की आज्ञा का उल्लंघन करने व सिर उठाने की हिम्मत नहीं होती थी। उसके पूर्वज सम्राट नागभट्ट प्रथम ने स्थाई सेना संगठित कर उसको नगद वेतन देने की जो प्रथा चलाई वह इस समय में और भी पक्की हो गई और गुर्जर साम्राज्य की महान सेना खड़ी हो गई। यह भारतीय इतिहास का पहला उदाहरण है, जब किसी सेना को नगद वेतन दिया जाता हो। सीमावर्ती राजाओं से उसकी दुश्मनी है एवं उनसे सम्राट मिहिरभोज का युद्ध चलता रहता है। 915 ईस्वीं में भारत भ्रमण पर आए बगदाद के इतिहासकार अल- मसूदी ने अपनी किताब मरूजुल महान मेें इस महान शक्तिशाली, महा पराक्रमी गुर्जर सेना का विवरण दिया है। अल- मसूदी ने गुर्जर सेना की संख्या 36 लाख बताई है। 9-9 लाख चारों दिशाओं में। श्री के.एम. मुंशी ने मिहिर भोज की तुलना गुप्तवंशी सम्राट समुंद्र गुप्त और मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त से इस प्रकार की है। वे लिखते हैं कि गुर्जर सम्राट मिहिर भोज इन सभी से बहुत महान थे क्योंकि तत्कालीन भारतीय धर्म एवं संस्कृति के लिए जो चुनौति अरब के इस्लामिक विजेताओं की फौजों द्वारा प्रस्तुत की गई वह चंद्रगुप्त एवं समुंद्रगुप्त आदि के समक्ष पेश नहीं हुई थी और ना ही उनका मुुकाबला अरब जैसे अत्यंत प्रबल शत्रुओं से हुआ था।
सेना को नकद वेतन देने की शुरुआत सम्राट भोज की देन
गुर्जर सम्राट मिहिर भोज व उनके महान पूर्वज नाग भट्ट प्रथम, वत्सराज, नाग भट्ट द्वितीय ने अरबों को परास्त कर खदेड़ दिया था और भारतीय संस्कृति की अभूतपूर्व वीरता के साथ रक्षा की। इस प्रकार सम्राट मिहिर भोज जिसकी रगों में अपने महान पूर्वजों नागभट्ट प्रथम, वत्सराज, नाग भट्ट द्वितीय का वीर रक्त प्रवाहित था वह एक अद्वितीय विजेता साम्राज्य निर्माता एवं धर्म संस्कृति के रक्षक व पोषक थे। इससे पहले सभी भारतीय राज्यों में सैनिकों व सेनापतियों को जागीरें आदि दी जाती थीं। और उक्त जागीरदार राजाओं के बुलाने पर युद्ध के समय शस्त्र धारण कर उपस्थित होते थे । युद्ध समाप्त हो जाने के पश्चात वे अपनी अपनी जागीरें वापस लौटा देते थे। परंतु गुर्जर प्रतिहार सम्राटों ने जिनके युद्ध अरब जैसे अत्यंत प्रबल शत्रुओं से प्राय चलते ही रहते थे इस जागीरदारी प्रथा को समाप्त करके स्थाई सेना संगठित की थी। जिसके नकद वेतन मिलता था। यह प्रथा भारतीय इतिहास में नई थी। जो सर्वप्रथम गुर्जर प्रतिहार सम्राटों, नागभट्ट प्रथम, वत्सराज, नाग भट्ट द्वितीय, मिहिर भोज व महिपाल आदि ने शुरू व कायम रखी। यह सेना इतिहास के विद्वानों के लिए खोज का विषय है कि किस प्रकार गुर्जर प्रतिहार सम्राटों ने इतनी बड़ी सेना जिसकी संख्या 36 लाख थी किस प्रकार निर्माण व नियंत्रण व संचालन किया होगा। गुर्जरों की इतनी विशाल बलशाली, शक्तिशाली, महापराक्रमी सेना होना यह दर्शाता है कि उस समय भारत में हिंदू समाज के सभी लोग गुर्जरों के राज्य में सुखी थे। एवं जात पात के आधार पर समाज विभाजित नहीं था। विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ सभी वर्ग व जातियों के लोग संगठित होकर लड़ते थे।
राजा मिहिर भोज द्वारा बनवाए गए मंदिर व बावडिय़ा
हमारे हिंदु समाज में एक कहावत बहुत प्रचलित है कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली। यहां पर राजा भोज गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के लिए कहा गया है और गंगू तेली सम्राट के राज्य के एक तेली के लिए कहा गया है। गवालियर स्थित तेली का मंदिर इसी कहावत का प्रमाण है। ये मंदिर गुर्जर सम्राट मिहिर भोज द्वारा बनाया गया था और इस मंदिर के निर्माण के दौरान देख रेख गंगू तेली ने की थी। जयपुर से 95 किलोमीटर दूर जयपुर आगरा राष्ट्रीय राजमार्ग पर आभानेरी गांव है। इस गांव में हर्षत माता का प्रसिद्ध मंदिर भी सम्राट मिहिर भोज ने ही बनवाया था। आभानेरी गांव में चांद बावडी भी सम्राट भोज द्वारा ही बनवाई गई थी। ये बावड़ी भारत में सबसे प्राचीन व प्रथम बावड़ी है। भारत में बावड़ी बनवा कर जल संग्रह करने की प्रथा सर्वप्रथम सम्राट मिहिर भोज द्वारा ही चलवाई गई। इन बावडियों का निर्माण यह दर्शाता है कि सम्राट भोज कितने महान सम्राट थे। यह भारत में पाई जाने वाली सबसे बड़ी और सबसे गहरी बावड़ी है। चंबल के निकट बने भुट्टेश्र मंदिरों की श्रंृखला भी गुर्जर सम्राटों द्वारा बनवाई गई। गवालियर के विल्लभट्ट स्वामी मंदिर के निर्माण का श्रेय भी गुर्जर सम्राट मिहिर भोज महान को जाता है। कलिंजर से प्राप्त हुए 836 ईस्वीं के ताम्रपत्र में गुर्जर सम्राट मिहिर भोज द्वारा अग्रहारा के लिए दी हुई भूमि का वर्णन है। अग्र्रहारा वह भूमि होती है जिससे सम्राट शिवालय के लिए दान में देता है। उस जगह से सम्राट कर नहीं वसूलता था। उस स्थान से इक_ा किया गया धन शिवालय की देखरेख के लिए खर्च होता है। उत्तर प्रदेश स्थित आगरा शहर का नाम अग्रहारा के नाम पर ही रखा गया है। यहां के शिवालय का नाम अग्रसर महादेव के नाम से प्रसिद्ध था। यह मंदिर गुर्जर सम्राट मिहिर भोज द्वारा बनवाया गया था और यहां पर उनका बनवाया हुआ एक विशाल उपवन भी था। इस बात की पुष्टि इंग्लैंड की विश्व प्रसिद्ध समाचार एजेंसी बीबीसी ने भी की है। बीबीसी ने अपनी रिपोर्ट में सम्राट मिहिर भोज द्वारा बनवाए गए अग्र्रेश्वर महादेव के कई प्रमाण दिए हैं। धु्रवीपुर से मिले 856 ईस्वीं के ताम्रपत्र में गुर्जर सम्राट मिहिर भोज द्वारा कलचूरी राजा गुणम बोधि देव को इनाम में दी हुई भूमि का वर्णन मिलता है। गुणम बोधी देव को यह भूमि बंगाल के पालों के विरुद्ध हुए युद्ध में योगदान देने के उपरांत दी गई थी।
राज मिहिर भोज की न्यायप्रियता
अरब इतिहासकारों ने गुर्जर सम्राट मिहिर भोज को अपना परम शत्रु बताया है। परंतु फिर भी वे उनके प्रशंसक थे। अरब इतिहासकार सम्राट भोज के बारे में अपने लेखों में वर्णन करते हैं कि हिंद में जो गुर्जर सम्राट है उनके सम्राज्य में बहुत न्याय है। अगर किसी का सोना भी गिर जाए तो उसका किसी के द्वारा उठाए जाने का या चुराए जाने का कोई खतरा नहीं है। उसका साम्राज्य बहुत बड़ा है। अरब के व्यापारी उसके पास जाते हैं और वो उन व्यापारियों से उनका सामान खरीदकर उन पर एहसान करता है। उसके साम्राज्य में लेन देन सोने के सिक्के से होता है। उस सिक्कों को टारटरी कहते हैं। जब अरब के व्यापारी अपना सामान सम्राट को बेचने के पश्चात उनसे अंगरक्षक मुहैया कराने के लिए कहते हैं तो गुर्जर सम्राट कहते हैं कि मेरे साम्राज्य में चारों और डाकुओं का कोई भय नहीं है। अगर तुम्हारे साथ कोई हादसा हो जाए या तुम्हारा कोई सामान या धन चोरी हो जाए तो मेरे पास आना। मैं तुम्हारे उस नुकसान का हर्जाना दूंगा। यह मेरा तुमसे अटल वचन है। इन शब्दों से गुर्जर सम्राट मिहिर भोज महान की न्याय प्रियता का पता चलता है।
सम्राट मिहिर भोज के नाम पर शहरों व राष्ट्रीय राजमार्ग का नाम
सम्राट मिहिर भोज के नाम पर कई शहरों के नाम रखे गए। जैसे मिहिरावली आधूनिक महरौली, प्रभास पट्टन, वाराह नगर। गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के 4 प्रसिद्ध नाम थे। वे हैं मिहिर भोज, आदि वाराह, प्रभास भूभृत। राष्ट्रीय राजमार्ग 24 जो दिल्ली से लखनऊ को जोड़ता है का नाम भी दिल्ली सरकार ने गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के नाम पर रखा है और दिल्ली में निजामुद्दिन पुल है जहां से यह राजमार्ग शुरू होता है। वहां पर दिल्ली सरकार ने एक बड़ा सा पत्थर लगाया है जिस पर लिखा है गुर्जर सम्राट मिहिर भोज राष्ट्रीय राजमार्ग। 24 राष्ट्रीय राजमार्ग जो गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के नाम से विख्यात है पर ही स्थित स्वामी नारायाण संप्रदाय का अक्षरधाम मंदिर है। अक्षरधाम मंदिर में स्थित भारत उपवन में गुर्जर सम्राट मिहिर भोज महान की धातू की मूर्ति प्रतिष्ठित है। वहां अनेक राजाओं की भी मूर्तियां है। पर जिस सम्मान से गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का नाम लिखा है ऐसे किसी अन्य राजा का नहीं लिखा। सम्राट भोज के लिए लिखा है महाराजा गुर्जर मिहिर भोज महान। दादरी स्थित मिहिर भोज इंटर कॉलेज का नाम भी गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के नाम पर ही रखा गया है।
गुर्जर सम्राट द्वारा चलाए गए सिक्कों का वर्णन
अरब यात्रियों ने गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के सोने की धातू से बनवाए हुए सिक्कों का वर्णन किया है। सम्राट मिहिर भोज के कई स्थानों पर चांदी व तांबे के सिक्के भी मिले हैं। जिनका वजन 56 ग्राम से 65 ग्राम के बीच है अैर जिनकी आकृति गोलाकार है। उनकी गोलाई 62 एमएम से 72 एमएम के बीच की है। हमने जिस सिक्के का स्टीकर बनवाया है वह चांदी का है और इंग्लैंड ब्रिटेन स्थित ब्रिटिश संग्राहलय में रखा हुआ है। जब हमारे देश में अंग्रेजों का राज था तो वह हमारे देश से बहुत सी बहुमूल्य चीज ले गए थे। इस सिक्के का फोटो इंटरनेट भारतीय सिक्कों की वेबसाइट पर उपलब्ध है। हरियाणा के खोखरा कोट नामक ग्राम में मिहिर भोज के सिक्के मिले हैं। जिसके मुद्रा के ठप्पे पर आदिवाराह की अत्यंत सुंदर मुर्ति चित्रित है। मुद्राएं आचार्य भगवान देव गुरुकुल झज्जर के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। इस सिक्के का विवरण इस प्रकार है। इसमें एक मनुष्य की आकृति बनी हुई है, जिनका मस्तिष्क वाराह का है। उन्होंने बायां पैर उठा रखा है अैर वह सामने की तरफ देख रहे हैं। उनके हाथ नीचे की तरफ झुके हुए हैं और कोहनियां मुड़ी हुई हैं। उनके बायें पैर के पास सुदर्शन चक्र रखा है और दाएं की तरफ पदम कमल का फूल और शंख है। ये सिक्का चतुर्भज विष्णु के वाराह अवतार की आकृति को दर्शाता है।
गुर्जर सम्राट मिहिरभोज महान
गुर्जर सम्राट नागभट् के पश्चात गुर्जर सम्राट कुकुस्थ व उसके पश्चात देवराज ने 760-780 ई0 गुर्जर देश पर शासन किया । सन 770 ई0 में पुनः अरबों ने आक्रमण किया । वल्लभी के प्रसिद्ध एंव प्राचीन नगर को अरबों ने ध्वस्त कर दिया था। देवराज जो नागभट् प्रथम का उत्तराधिकारी थी। उसने कन्नौज के शासक भन्डी को हराकर अपना साम्राज्य सुदृ़ढ़ किया। अरबों को सैनिक कार्यवाही करके वापस खदेड़ दिया । दक्षिण के राष्ट्र कूटों से देवराज गुर्जर सम्राट को युद्ध जारी रखना पड़ा । अन्त में अरबों को वापिस लौटना पड़ा ।
गुर्जर सम्राट देवराज के पश्चात उसका बेटा वत्सराज सन 780-800 ई0 गुर्जेश्वर बना । वीर वत्सराज गुर्जर सम्राट ने गुर्जर राज्य को अखिल भारतीय साम्राज्य का दर्जा दिया । उसे अरबों से राष्ट्र कूटों से व बंगाल के पाल वंशी राजा धर्मपाल अहीर से निरन्तर युद्ध रत रहना पड़ा । कच्छ और सिन्ध के कुछ भागों पर वत्सराज का अधिकार हो गया था। पूर्व की ओर बढ़ कर सम्राट वत्सराज ने कन्नौज के वैभवशाली नगर व कन्नौज के राजा चक्रायुद्ध को परास्त करके उसके विस्तृत राज्य को अपने साम्राज्य का अंग बना लिया । चक्रायुद्ध के सहायक व संरक्षक बंगालपति धर्मपाल को भी वत्सराज से हार माननी पड़ी । लेकिन राष्ट्र कूट राजा ध्रूव को वत्सराज पराजित न कर सका । परन्तु यह निःसन्देह है गुर्जर साम्राज्य के किसी भी भाग की एक इंच भूमि पर राजा ध्रुव अधिकार नहीं कर सका और गुर्जर सम्राट वत्सराज का दब दबा बढ़ता चला गया।
वत्सराज के पश्चात उसका बेटा नागभट् द्वितीय 800-833 ई0 उत्तर भारत का सम्राट बना । उसने अपनी राजधानी उज्जैन से बदल कर 815 ई0 में कन्नौज को बनाया । उसे भी अपने पूर्वजों की भांति अरबों से , राष्ट्र कूटों और पालों से निरन्तर संधर्ष व संग्राम करना पड़ा । अरब साम्राज्य के स्वामी खलीफा हारून रशीद ने सिन्ध के मुसलिम शासक को भारत विजय करने का आदेश सैनिक सहायता भेज कर जारी कर दिया । परन्तु नागभट् द्वितीय ने अपने सामन्त की सहायता व सहयोग से अरब सेनाओं को परास्त कर दिया और सिन्ध प्रान्त का सिन्ध नदी के पूर्वी भाग पर अधिकार कर लिया । इस प्रकार गुर्जर राज्य की सीमाएं पश्चिम में सिन्ध नदी तक, पूर्व में बंगाल के पाल राज्य की सीमा की सीमा तक, उत्तर में हिमालय तक , दक्षिण में नर्मदा नदी तथा आन्ध्र प्रदेश तक विस्तृत हो गई थी ।
कुछ इतिहासकारों ने सज्जन अभिलेख (871 ई0) में इन वाक्यों से कि राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय ने सम्राट चन्द्रगुप्त व नागभट् की ख्याति को धूमिल कर दिया ये अनुमान लगाया कि नागभट् द्वितीय को गोविन्द तृतीय राष्ट्र ने हराया होगा जो गलत है क्योंकि उसको जब चन्द्रगुप्त तथा नागभट् द्वितीय की ख्याति को धूमिल करने वाला लिखा गया है तो उसका अर्थात हराने वाला नहीं हो सकता । विशेषकर इसलिए कि चन्द्र्रगुप्त तो उसका समकालीन भी नहीं बल्कि कई शताब्दी पूर्व का है। अतः इसका अर्थ अपने राजा गोविन्द तृतीय की ख्याति अतिश्योक्ति पूर्ण प्रशंसा है।
सम्राट नागभट् द्वितीय के बाद उसका बेटा रामभद्र भारत का सम्राट बना। जिसकी महारानी का नाम अप्पादेवी था, जिसकी कोख से महान गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का जन्म हुआ था। 835-890 ई0 नागभट् द्वितीय ने रामभद्र के लिए विस्तृत साम्राज्य छोड़ा था। रामभद्र की अन्य समय में ही मृत्यु हो गई थी इसलिए वह साम्राज्य का विस्तार नहीं कर सका था उस कमी को उसके महन सपूत मिहिर भोज ने पूरा किया और वह भारत के इतिहास में सूर्य के समान देदीप्यमान रहा । मिहिर भोज का जन्म सम्राट रामभद्र की महारानी अप्पादेवी की पुनीत कोख से सूर्यदेव की उपा सना के फलस्वरूप हुआ था ।
सम्राट मिहिर भोज के चार नाम प्रसिद्व हैं:-
मिहिर, भोज, प्रभास, आदि बराह । मिहिर नाम पर ही मिहिरावली जिसे आज कल महरौली नगर कहते हैं। भोज नाम पर भोजपुरी, प्रभास नाम पर प्रभास पाटन, वराह नाम परवराह नगर आदि थे । सम्राट कनिष्क ने देवपुत्र काठियावाड़ में समुद्र के किनारे देवपटन नगर बसाया था और वहां पर पहला शिव मन्दिर बनवाया गया । जो नवीं सदी से सोमनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इस नामकरण का कारण यह था कि सम्राट कनिष्क द्वारा पहली सदी में बनवाया हुआ शिव मन्दिर तथा देव पटन नगर आठवीं सदी के अरबी हमलों में ध्वस्त हो गये थे। तत्पश्चात गुर्जर प्रतिहार सम्राटों ने विशेष कर सम्राट मिहिर भोज ने अन्तिम रूप से अरबों को खदेड़ कर देवपटन स्थान पर अपने प्रभास नाम पर प्रभास पाटन नगर बसाया और शिव मंदिर पुनः बनवाया । प्रभास का अर्थ चन्द्रमा अथवा सोन होने के कारण यह मन्दिर सोमनाथ कहलाया । इसकी पहली महारानी का नाम चन्द्र भट्ारिकादेवी और दूसरी रानी का नाम कलावती था। कलावती के पिता का नाम चन्द्र राज चैहान था। जो सम्राट मिहिर भोज का सामन्त था। महारानी भटटारिका देवी की पुनीत कोख से भारत के भावी सम्राट महेन्द्रपाल का जन्म 890-910 ई0 में हुआ था ।
सम्राट मिहिर भोज के आधाीन सामन्त गुहिल द्वितीय (मेवाड़) ककुक पडि़हार (मान्डोवर), वैरीसिह परमार (मालवा) गुनम बोधिदेव कलंचुरी (गोरखपुर) कनकपाल परमार (गढ़वाल) कोकल्य कलंचुरी (त्रिपुरी) विजय शक्ति चन्देला (बुन्देलखण्ड) अनहिल पाटन के चावड़े सौराष्ट्र के चालुक्य, कलिंग व विदर्भ के राजा, ग्वालियर (नरवर) के कछवाहे, दिल्ली के तंवर काशी के गहदवाल, पंजाब के शाही खटाणे व टोंक वंशी गुर्जर अल्कानदेव और आबु चन्द्रावती के परमार मुख्य थे ।
सम्राट मिहिर भोज के मित्र काबुल का ललिया शाही राजा कश्मीर का उत्पल वंशी राजा अवन्ति वर्मन तथा नैपाल का राजा राघवदेव और आसाम के राजा थे वे मिहिरभोज को अपन अधिराज मानते थे। सम्राट मिहिर भोज के उस समय शत्रु, पालवंशी राजा देवपाल, दक्षिण का राष्ट्र कटू महाराज आमोधवर्ष और अरब के खलीफा मौतसिम वासिक, मुत्वक्कल, मुन्तशिर, मौतमिदादी थे । अरब के खलीफा ने इमरान बिन मूसा को सिन्ध के उस इलाके पर शासक नियुक्त किया था। जिस पर अरबों का अधिकार रह गया था। सम्राट मिहिर भोज ने बंगाल के राजा देवपाल के पुत्र नारायणलाल को युद्ध में परास्त करके उत्तरी बंगाल को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। दक्षिण के राष्ट्र कूट राजा अमोधवर्ष को पराजित करके उनके क्षेत्र अपने साम्राज्य में मिला लिये थे । सिन्ध के अरब शासक इमरान बिन मूसा को पूरी तरह पराजित करके समस्त सिन्ध गुर्जर साम्राज्य का अभिन्न अंग बना लिया था। केवल मंसूरा और मुलतान दो स्थान अरबों के पास सिन्ध में इसलिए रह गए थे कि अरबों ने गुर्जर सम्राट के तूफानी भयंकर आक्रमणों से बचने के लिए अहमहफूज (सुरक्षागार) नामक रक्षा प्राकर बनवाए हुए थे जिनमें छिप कर अरब अपनी जान बचाते थे ।
सम्राट मिहिर भोज को यह पसन्द नहीं था कि अरब इन दो स्थानों पर भी सुरक्षित रहें और सिर दर्द बने रहे इसलिए उसने कई बड़े सैनिक अभियान भेज कर इमरान बिन मूसा के अनमहफूज नामक रक्षा प्रकारों को विजय कर के गुर्जर साम्राज्य की पश्चिमी सीमाएं सिन्ध नदी से सैंकड़ों मील पश्चिम तक विस्तृत कर ली और इसी प्रकार भारत देश को अगली शताब्दियों तक अरबों के बर्बर, धर्मान्ध तथा अत्याचारी आक्रमों से सुरक्षित कर दिया था। इस तरह गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के राज्य की सीमाएं काबुल से रांची व आसाम तक, हिमालय से नर्मदा नदी व आन्ध्र तक, काठियावाड़ से बंगाल तक, सुदृढ़ तथा सुरक्षित थी ।
अरब यात्री सुलेमान और मसूदी ने अपने यात्रा विवरण में लिखा है 'गुर्जर सम्राट जिनका नाम बराह है मुसलमानों का सबसे बड़ा शत्रु है। वह सिन्ध का भी सम्राट है। जिसको इसने अपने हिन्दू राज्य में मिला लिया है। इसकी सेना लगभग 36 लाख है। उसके राज्य में चोर डाकू का भय कतई नहीं है। उसकी राजधानी कन्नौज भारत का प्रमुख नगर है जिसमें 7 किले और दस हजार मंदिर है। गुर्जर सम्राट आदि बराह का (विष्णु) का अवतार माना जाता है। यह इसलाम धर्म और अरबों का सबसे बड़ा शत्रु है। गुर्जर सम्राट मिहिर भोज इतिहास प्रसिद्ध महान कुशल सेनापति था। वह अपने जीवन के पचास वर्ष युद्ध के मैदान में घोड़े की पीठ पर युद्धों में व्यस्त रहा। उसकी चार सेना थी उनमें से एक सेना कनकपाल परमार के नेतृत्व में गढ़वाल नेपाल के राघवदेव की तिब्बत के आक्रमणों से रक्षा करती थी। इसी प्रकार एक सेना अल्कान देव (अलखाना) के नेतृत्व में पंजाब के वर्तमान गुजराज नगर के समीप नियुक्त थी जो काबुल के ललियाशाही राजाओं को तुर्किस्तान की तरफ से होने वाले आक्रमणों से रक्षा करती थी। इसकी पश्चिम की सेना मुलतान के मुसलमान शासक पर नियंत्रण करती थी। दक्षिण की सेना मानकिर (मान्यखेत) के राजा बल्हारा से (राष्ट्र कूट) तथा अन्य दो सेना दो दिशाओं में युद्धरत रहती थी। सम्राट मिहिर भेाज इन चारों सेनाओं का संचालन, मार्गदर्शन तथा नियंत्रण स्वयं करता था। सेना को नकद वेतन मिलता था। इस प्रथा को भारत देश सर्व प्रथम गुर्जर प्रतिहार सम्राट नागभट् ने प्रचलित किया था जिसे सभी गुर्जर प्रतिहार सम्राटों ने चालू रखा ।
दक्षिण में मिहिर भोज के सामन्त गुहक चैहान ने दक्षिण पर धावा बोल कर नर्मदा तक मालवा के भागों को जीत लिया था। लाट के लिए 30 वर्ष तक युद्ध चलता रहा । अन्त में गुर्जर सम्राट मिहिर भोज की विजय पताका वहंा फहराई। मिहिर भोज अपने समय पर अद्वितीय सम्राट था। उसने सामन्त (जागीरदार) प्रथा को समाप्त कर दिया था। इस से पहले सभी भारतीय राज्यों मे सैनिकों व सेनापतियों को जागीरें दी जाती थी ये जागीरदार राजाओं के बुलावे पर युद्ध के समय शस्त्रधारण करके उपस्थित होते थे और युद्ध समाप्ति के पश्चात अपनी-अपनी जागीरों को लौट जाते थे। यह एक तरह की बन्धुवा सेना था। लेकिन सम्राट मिहिर भोज ने अपने पूर्वजों की भांति स्थायी सेना खड़ी की । अरबों के लगातार हमलों के कारण भी स्थायी सेना का संगठन करना। गुर्जर प्रतिहार सम्राट नागभट् प्रथम की सूझ बूझ तथा दूरदृष्टि का परिचायक है। यदि नागभट् प्रथम के पश्चात के अन्य गुर्जर सम्राटों ने भी स्थायी, प्रशिक्षित व कुशल तथा देश भक्त सेना न रखी होती तो भारत का इतिहास कुछ और ही होता तथा भारतीय संस्कृति व सभ्यता नाम की कोई चीज बची नहीं होती ।
सम्राट मिहिर भोज जहंा उच्च कोटि का कुशल सेनापति था वहंा वह उच्च कोटि का प्रशासक भी था। अच्छे प्रशासक की पहचान यह है कि उसके राज्य में चोर डाकू तथा अन्य अपराधी पैदा ही नहीं होते और धर्मात्मा नागरिक सुखी व निर्भय जीवन व्यतीत करते हैं। सम्राट मिहिर भोज के राज्य में इतना वैभव होने पर भी डाकू पैर नहीं मार सकते थे । उसके समय में कला कौशल और व्यापार की बहुत वृद्धि हुई । वह अपार धन राशि का स्वामी तथा अपने समय का कुबेर था। उसके राज्य में चांदी और सोने की राख के समान बदीलने का व्यापार होता था क्योंकि उसके राज्य में सोने, चांदी की खाने थी ।
उसका विशाल साम्राज्य अनेक राज्यों, मण्डलों और विशों मंे बंटा हुआ था। जिन का शासन स्थानीय योग्य राजाओं , सामन्तों द्वारा संचालन किया जाता था। उन पर अनुशासन व अंकुश रखने के लिए दण्ड नायक स्वयं सम्राट मिहिर भोज नियुक्त करते थे । दोषी को सख्त सजा दी जाती थी इसलिए राज्य में सुख शान्ति थी ।
सम्राट मिहिर भोज का निजी जीवन बहुत नियमित धार्मिक तथा पवित्र था। वह वीर था किन्तु अभिमानी नहीं था। उसके आचरण पर कोई धब्बा नहीं था। वह अपने काल में मर्यादा पुरूषोतम राम के समान पवित्र माना जाता था। शत्रु उसकी क्रोधाग्नि में भस्म हो जाते थे । भारत से बाहर भी उसकी वीरता की धाक थी।
भारत का राजनैतिक संगठन महाराज हर्षवद्र्वन के उपरान्त समाप्त हो गया था। मिहिर भोज ने उससे भी बढ़ कर विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की कलाकौशल को चार चंाद लगाए । उसकी राजधानी कन्नौज और काशी विद्या सभ्यता तथा संस्कृति के केन्द्र पूर्व की अपेक्षा बहुत उन्नत हो गए थे । उसके पच्चीस वर्ष की आयु में दिग्विजय प्रारंभ की थी जो लगातार पचास वर्ष तक चलती रही ।
सम्राट मिहिर भोज के सिक्के व मुद्रायें उतरी भारत के अनेक स्थानों पर मिलते हैं। हरियाणें में रोहतक, हांसी, हिसार, अगरोहा, भिवानी, दादरी, बेरला, नौरंगाबाद और मारोत आदि स्थानों से सम्राट मिहिर भोज के पर्याप्त मुद्राएं मिली हैं। गुर्जर सम्राट मिहिर भोज की टकसाल रोहतक के खोकरा कोट को एक भाग से जो बाहर गढ़ी के समीप है मिली है। जिसपर माजरा गांव बसा हुआ है। आचार्य भगयान देव (स्वामी ओइमानन्द जी) जो हरियाणें के इतिहास के प्रामाणिक विद्वान हैं उन्होने गुरूकुल झज्जर में हरियाणें का प्रसिद्ध पुरातत्व संग्रहालय स्थापित किया है। उनके सौजन्य से मुझे 1965-66 में सम्राट मिहिर भोज की मुद्राओं के ठप्पे वहां देखने को मिले हैं जो खोकराकोट से निकले हैं। रोहतक से सम्राट मिहिर भोज की कई इतनी सुन्दर मुद्राएं मिली है जिन पर वराह अवतार का बहुत सुन्दर चित्र बना हुआ है। स्वामी ओइमानन्द जी ने दो मूतियां बराह अवतार की रोहतक से प्राप्त की है। यह सब इस बात का ठोस प्रमाण है कि नवीं सदी में गुर्जर साम्राज्य का सूर्य सारे भारत में देदीप्यमान था ।
सम्राट मिहिर भोज के विषय में विख्यात इतिहासकार श्री के0एम0 मुंशी ने 'इम्पीरियल गुर्जरम' प्रसिद्ध पुस्तक में सम्राट मिहिर भोज की तुलना संसार के तत्कालीन सम्राटों से और विशेषकर विजन्ती (रोम) के सम्राटों से करते हुए उसको सबसे महान बताया है। श्री के0एम0 मुंशी ने मिहिर भोज की तुलना गुप्तवंशी सम्राट समुद्र गुप्त और मौर्य वंशी सम्राट चन्द्रगुप्त भी इसी प्रकार करते हुए लिखा कि वह उन सबसे महान था क्योंकि तत्कालीन भारतीय धर्म व संस्कृति के लिए जो चुनौती अरब विजेताओं द्वारा प्रस्तुत की गई थी। वह चन्द्रगुप्त आदि सम्राटों के समक्ष नहीं थी और न ही उनका मुकाबला अरब जैसे अत्यंत भयंकर आतताई व बर्बर धर्मांध शत्रुओं से था। इसलिए श्री के0एम0 मुंशी ने इम्पीरियत गुर्जरस में लिखे शब्द कितने सटीक है 'मिहिर भोज जो कि गुर्जर सम्राटों में सबसे महान था, उसको इतिहास (विश्व के) में किसी भी सम्राट से व्यक्तिगत चरित्र तथा राजनैतिक उपलब्धियों व सफलताओं आदि किसी प्रकार भी दूसरे दर्जे का नहीं कहा जा सकता ।
जब विश्व विजयी अरब सेनाएं सिन्ध प्रान्त पर अधिकार करने व उसको मुसलिम राष्ट्र में परिवर्तित करने के उपरान्त समस्त भारत को विजय करने व उसको मुसलिम राष्ट्र परिवर्तित करनेके उदेश्य से अपने योग्य अनुभवी सेनापति मोहम्मद जुनेद के नेतृत्व में आगे बढ़ी, तो भारत के अन्य प्रदेशों में प्रवेश करने के पूर्व उन्हें सिन्ध से मिले गुर्जर प्रदेश को विजय करा आवश्यक था। इसलिए गुर्जर देश के राज्यों पर भयानक आक्रमण प्रारम्भ किए और इस प्रकार दो महापराक्रमी योद्धा जातियों के लम्बे समय तक चलने वाले युद्धों का प्रारम्भ हुआ । एक तरफ अरब, सीरिया व ईराक आदि के वे अनुभवी विश्व विख्यात सेनापति व तरूण सैनिक थे, जिन्होने अपने नवीन धर्म इसलाम के प्रसार लिए अपने सिरों को हथेली पर रख कर पहाड़ों, जंगलों नदियों और समुद्रों को लांच कर बड़े-2 शक्तिशाली राष्ट्रों को घोर संग्रामों द्वारा परास्त करके मुसलमान बनाया था और एशिया, अफी्रका तथा यूरोप के महाद्वीपों के विशाल भूखण्डों में महान मुसलिम साम्राज्य का निर्माण किया था। उनकी तलवारों से विश्व कांपनेे लगा था । तब दूसरी ओर थे, महान आर्य-धर्म व संस्कृति के प्रतीक गुर्जर योद्धा, जो तख्त या तख्ता (अर्थात जीतेंगें तो राज्य करेंगें वरना मृत्यु को गले लगा कर देश धर्म पर बलिदान होंगें) के सिद्धान्तानुसार अपने देश धर्म तथा संस्कृति की रक्षा में प्राणों की बाजी लगाए हुए थे । अरबी धर्मांध योद्धा 'अकबर अल्लाह के जयनाद से जंगलों व पहाड़ों की परवाह न करते व बस्तियों, नगरों को भयभीत करते हुए आगे बढ़ रहे थे तो इसके प्रतिरोध में जय महादेव जय गुर्जेश्वर, जय महाकाल के प्रखर जयघोष के साथ गुर्जर वीरों की तलवारें तैयार थी। भारी संग्राम होते थे तो देश धर्म पर मिटने वाले रण वांकुरे सूरमा शत्रु दल की लाशों से रण भूमि पाटते हुए व रक्त की नदियां बहाते हुए संगवार नामक तोपखाने (पत्थर फैंकने का यंत्र) की भीषण मार से वीर गति को प्राप्त होते थे परन्तु युद्ध में पीछ दिखाना उन्होने नहीं सीखा था। ऐसा करना क्षत्रियों की कुल परम्परा के प्रतिकूल था। इसलिए वीर गुर्जर हजारों की संख्या में बलिदान होकर आक्रमणकारियों को खदेड़ कर ही दम लेते थे । कभी-2 रात्रि के वक्त सोते हुए गुर्जर सैनिकों पर अरबी योद्धा चुपके से आकर भयानक आक्रमण करते और अचेतन अवस्था में हजारों वीरों की हत्या कर उनके नगरों को आग लगा देते थे और लूट का माल लेकर चम्पत हो जाते थे या अधिकार जमाकर डट जाते थे ।
गुर्जर योद्धा फिर संगठित होकर भीषण युद्धों के पश्चात अपने खोए हुए स्थानों को पुनः प्राप्त करते । इस प्रकार के आक्रमण जो रात्रि में सोए हुए सैनिकों पर हो जाते गुर्जरों की सभ्यता एवं संस्कृति के प्रतिकूल थे, परन्तु अरबों के धर्म में उनकी मान्यता थी और रात्रि के अचानक हमलों को शबखून कहते थे। इस प्रकार के भयानक युद्ध अरबों व गुर्जरों में निरन्तर चलते रहे । कभी रणक्षेत्र में भिनमाल, कभी हकड़ा नदी का किनारा, कभी भड़ौच व वल्लभी नगर तक अरबों के प्रहार हो जाते थे । कोई नगर क्षतिग्रस्त और कोई नगर ध्वस्त होता रहता था। जन धन की भारी हानि गुर्जरों को युद्ध में उठानी पड़ी जिनका प्रभाव अगले युद्धों पर पड़ा । बारह वर्ष तक इन भयानक युद्धों में गुर्जरों के भिनमाल आदि अनेक प्रसिद्ध नगर बुरी तरह ध्वस्त व कई राजवंश नष्ट हो गए और कई की दशा बहुत बिगड़ गई परन्तु आर्य धर्म व संस्कृति के रक्षक वीर गुर्जरों ने हिम्मत नहीं हारी ।
सम्राट मिहिर भोज की विजय यात्रा का वर्णन हरियाणें के प्रसिद्ध इतिहासकार श्री भगवान देव आचार्य (अब स्वामी ओइमानन्द सरस्वती) ने अपने एक आलेख में इस प्रकार किया है, महत्वाकांक्षी गुर्जर सम्राट मिहिर भोज ने राजगददी पर बैठते ही अपनी युवावस्था में अर्थात 25 वर्ष की आयु में ही दिग्विजय यात्रा प्रारंभ कर दी । सर्वप्रथम इसने कालिंजर मण्डल की राजभक्ति को स्थायी किया फिर उसने गुर्जर राज्य के वे भाग पुनः जीत कर अपने राज्य में सम्मिलित किया जो इसके पिता राजा रामभद्र की निर्बलता से अन्य राजाओं के अधिकार मंे चले गये थे । इसके पिता की निर्बलता से प्रायः सारा गुर्जर साम्राज्य क्षीण हो गया था। इसने कन्नौज को ही अपनी राजधानी रखा और धावा मारने प्रारम्भ कर दिए । सौराष्ट्र की विजय कर वहंा अपना दृढ़ अधिकार कर लिया और इसकी सुरक्षार्थ लाट के राष्ट्र कूट वाइसराय धु्रव द्वितीय से मित्रता कर ली। इसी कारण धु्रव द्वितीय ने भोज की सहायता से कर्नाटक के राष्ट्र सम्राट का जूवा उतार फैंकने के लिए कठिन महायुद्ध छेड़ दिया जो तीस वर्ष तक चलता रहा। इससे मिहिर भोज को दक्षिणा की चिन्ता से मुक्ति मिली और वह पूर्व और पश्चिम के शत्रुओं के झगड़े निबटाने में जुट गया ।
सर्व प्रथम गौड़ बंगाल के पाले वंश के शक्तिशाली राजा देवपाल से टक्कर हुई । इसमेें मिहिर भोज की विजय हुई । देवपाल के पुत्र नारायण तथा पौत्र विग्रह पाल से भी युद्ध होते रहे । इस वीर गुर्जर सम्राट ने 876 ई0 तक गंडक और सोन नदियों को पार करके समस्त बिहार, त्रिहुत और उतरी बंगाल को अपने साम्राज्य में मिला लिया ।
पूर्वी भाग को विजय कर वह पंजाब की ओर बढ़ा । हरियाणे को जीत उस ने करनाल में पेहोबा के स्थान पर अपना राज्याधिकारी नियुक्त किया । चिनाव जहलम के दुआब में अलाखान को अपना प्रतिनिधि बनाया । उसने काबुल के शाहीवंश के महाराजा लालिप से मित्रता कर ली । काबुल का सम्राट मिहिर भोज की सहायता में अरबों के आक्रमण का डट कर मुकाबला करता रहा । उड़ीसा और आसाम के राजाओं ने भी मिहिर भोज से मेल कर लिया । इस गुर्जर सम्राट ने नेपाल का श्रावस्ती मण्डल भी जीत लिया । कश्मीर का सम्राट शंकर वर्मन मिहिर भोज का इसके जीवन काल में मित्र बना रहा । मिहिर भोज के समय अरबों ने भारत में अपनी शक्ति बढ़ाने का यत्न किया किन्तु इस वीर प्रतापी गुर्जर सम्राट ने अरबों को कच्छ से भी निकाल भगाया जहंा वे आगे बढ़ने लगे थे। इस वीर सम्राट ने अपने बाहुबल से खलीफा का अधिकार सिन्ध से भी हटा लिया। मिहिर भोज का राज्याधिकारी अलाखान काबुल हिन्दूशाही वंश के राजा लालिप को अरबों के होने वाले आक्रमणों के विरूद्ध निरन्तर सहायता देता रहा क्योंकि उस समय काबुल कन्धार भारतवर्ष के ही भाग थे।
डा0 आर0सी0 मजूमदार ने अपने प्रसिद्ध ग्रन एनशियेट इन्डिया में सम्राट मिहिर भोज के बारे में लिखा है। भोज की प्रतिष्ठा था कि वह एक महान शक्तिशाली सम्राट है, उसके साम्राज्य में शान्ति है। विदेशी हमलावरों से भारत देश सुरक्षित है। मुसलिम आक्रान्ताओं से उसने देश की रक्षा की थी अपने उत्तराधिकारियों के लिए भी उसने वही पवित्र परम्परा छोड़ी जिसका उस ने स्वयं पालन किया था। अर्थात साम्राज्य में शान्ति और सम्पन्नता तथा विदेशी हमलावरों से देश की सुरक्षा ।
गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के विषय में भी डा0 आर0सी0 मजूमदार ने उपरोक्त ग्रंथ में लिखा है गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य का सम्पूर्ण गौरव पूर्ण समय लगभग तीन शताब्दि का है। मुसलमानी हमलों से पूर्व उतर भारत का गुजर प्रतिहार साम्राज्य अन्तिम व महान साम्राज्य था। उतर भारत मेंगुर्जरों राजनैतिक एकता कायम की । पश्चिम से होने वाले आक्रमणों को रोकने के लिए ढाल का काम किया। प्रतिहार बाहरी मुसलिम हमलों को रोकने और साम्राज्य की सुरक्षा करने में दीवार का काम किया । यह प्रतिहार सम्राटों की सेना का कमाल था कि 300 वर्ष तक मुसलिम आक्रमणकारियों से डटकर टक्कर लेते रहे और बार-2 उन्हें वापिस खदेड़ते रहे। यह प्रतिहार सम्राटों का देश के प्रति महान योगदान है। प्रतिहार साम्राज्य के कई महान व योग्य सम्राट व शासक हुए हैं जैसे कि वत्सराज, नागभट् मिहिर भोज व महेन्द्रपाल आदि । प्रतिहार सम्राटों ने गुर्जर साम्राज्य की ऐसी शाही परम्पराओं का पालन किया जिनके अनुसार उन्होने देश की रक्षा के लिए अनेक बार बलिदार दिये और अपनी शक्ति को जीवित भी रखा यह उनकी देशभक्ति और संगठन शक्ति का चमत्कार था। राजशेखर ने महेन्द्र पाल सम्राट को आर्यवर्त का महाराजाधिराज तथा सम्राट कहा है और उत्तर भारत के साम्राज्य का सम्राट भी कहा है।
गुर्जर सम्राट मिहिर भोज, भोजपुरी भाषा और भोजपुर (बिहार) के बीच का संबंध
भोजपुर,बिहार जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, भोजपुरी भाषा बोलने वाला सांस्कृतिक क्षेत्र है। बिहार के अलावा पूर्वी उत्तर-प्रदेश का कुछ क्षेत्र भी इस सांसकृतिक पॉकेट का अभिन्न हिस्सा है।बिहार शायद एक अनोखा राज्य है जो अपने अलग-अलग सांस्कृतिक भू-भागों में अलग-अलग सांस्कृतिक धरोहरों के लिए विख्यात है। भोजपुरी क्षेत्र निष्कर्षतः लोक-संस्कृति प्रधान रहा है। भोजपुर क्षेत्र की सीमा को विद्वानों ने उत्तर में हिमालय पर्वतमाला की तराई, दक्षिण मध्यप्रान्त का जसपुर राज्य, पूर्व में मुजफ्फपुर की उत्तरी-पश्चिमी भाग और पश्चिम में बस्ती तक के विस्तार को माना है। इस प्रकार इसका क्षेत्रफल लगभग पच्चास वर्गमील है। पृथ्वीसिंह मेहता अपनी पुस्तक बिहार एक ऐतिहासिक दिग्दर्शन में लिखते है कि गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज ने अपने नाम से भोजपुर किले की स्थापना की। लेखक पृथ्वीसिंह मेहता का मत है कि कन्नोज के गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज ने भोजपुर बसाया था। 'भोजपुर राजा भोज का बसाया है, यह बात जनता में आजतक प्रचलित है, लेकिन कन्नोज के गुर्जर सम्राट मिहिर भोज को भूल जाने के कारण लोग आज धार (मालवा) के राजा भोज परमार को उसका संस्थापक मान बैठे हैं। मालवा का राजा भोज परमार महमूद गजनवी का समकालीन था और बिहार से उसका कोई सम्बन्ध न था। उत्तरी भारत में के लगभग 836 ई० गुर्जर सम्राट रामभद्र का बेटा गुर्जर सम्राट मिहिर भोज गद्दी पर बैठा। भोज के गद्दी पर बैठते ही स्थिति बदल गयी। "देवपाल को हराकर उसने शीध्र ही कन्नौज वापस ले लिया और भिन्नमाल की जगह कन्नौज को ही अपना राजधानी बनाया। हिमालय में काश्मीर की सीमा तक का प्रदेश जीतकर ने अपने राज्य में शामिल कर लिया और अपनी पश्चिमी सीमा वहाँ मुलतान के अरब राज्य तक पहुँचा दी। पूरब में गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के राज्य की सीमा बिहार तक थी। राजा देवपाल से उसने पश्चिमी बिहार (प्राचीन मल्ल देश) छीन लिया।"गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के ग्वालियर प्रशस्ति (इपिग्राफिका इंडिका-भाग 12 , पृ० 156 ) से यह स्पष्ट होता है कि इसने धर्मपाल के पुत्र देवपाल को हराया था, साथ ही सारन जिले के दिवा-दुवौली ( इण्डियन एंटिक्वेरी - भाग 12 , पृष्ठ 112 ) नामक गाँव से पाये गये ताम्रपत्र से भी यह बात सिद्ध होती है कि प्रतिहार भोज का राज्य गोरखपुर तथा सारन तक था। पृथ्वीसिंह मेहता यह भी लिखते हैं कि पालों कि रोकथाम के लिए उन्होने शाहबाद जिले में अपने नाम से भोजपुर की स्थापना की। उसी भोजपुर नाम से आज पश्चिमी बिहार की जनता और उनकी बोली भोजपुरी कहलाती है। पृथ्वीसिंह मेहता का विचार अधिक प्रामाणिक है , क्योंकि कम से कम गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का राज्य सारन तक तो रहा। इसकी संभावना भी है कि उसने पालों की रोकथाम के लिए भोजपुर में किले की स्थापना की गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के भोजपुर में किला बनवाने की बात ही सबसे अधिक कही जाती है।
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