विकास बन रहा है विनाश का मुख्य कारण ! रघुराज सिंह

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


सन् 2001नौएडा का छजारसी गांव सन् 2019 नौएडा  का छजारसी गांव 


सरकारें किसानों पर आरोप लगा रही हैं  पराली जलने से  प्रदूषण  बड़ा है  लेकिन  जीता जागता  उदाहरण  आपके सामने हैं  जब मैं 12 या 13 साल का था तब से देखता आया हूँ कि देश मे डवलपमेंट कैसा हो रहा है । आज तक समझ नही पाया कि डवलपमेंट असल है क्या ? डवलपमेंट असल मे ग्रामीणों से भूमि छीनो और विकास व रोजगार के नाम पर धन्धा करो यही समझ पाया हूँ। पहले हमारा जिला मेरठ हुआ करता था फिर गाजियाबाद बना अब गौतमबुद्ध नगर है । आज गौतमबुद्ध नगर जिसमे नोएडा,ग्रेटर नोएडा व यमुना प्राधिकरण आते है । उस वक्त आज के गौतमबुद्ध नगर में सिर्फ खेती होती थी । पढ़ाई करनी हो ग़ाज़ियाबाद जाना पड़ता था व रोजमर्रा के कामो के लिये भी ग़ाज़ियाबाद ही जाना पड़ता था । ग़ाज़ियाबाद में हमारा मकान था जो हमारे जन्म से पहले ही पिता जी ने लिया था इस लिये हम सब लोग ग़ाज़ियाबाद में रह कर ही पढ़ाई करते थे । ग़ाज़ियाबाद से गाँव आने में पैदल आते जाते थे,कभी साइकिल पर आते थे। पैदल आने में 40 से 50 मिनट लगते थे और साइकिल पर लगभग 25 से 35 मिनट लगते थे । रास्ते मे के बीच मे छजारसी गाँव पड़ता था जो हिंडन नदी के किनारे पर था । उस वक्त हिंडन नदी में नाव लगती थी जिसमे बैठ कर आने जाने वाले नदी पार करते थे । स्व: यादू नाम के मल्लाह होते थे छजारसी के ही रहने वाले थे । हिंडन नदी के किनारे खेत होते थे जिनमे खरबूजे,तरबूज की फसल होती थी वो  ज्यादातर यादू जी ही पैदा करते थे। क्या खूब दिन थे जब नदी के किनारे में अगर सिक्का भी गिर जाता था तो पानी मे साफ दिखता था और उसमें से पानी भी सब लोग पीते थे । आज नदी नही बल्कि सीवर के पानी का नाला होकर रह गया है,ये है आधुनिक डवलपमेंट का जीता जागता उधाहरण है । यही हाल यमुना नदी का है । दोनो नदियां दिल्ली में व दिल्ली के नजदीक होकर गुजरती है उनका ये हाल है । देखो विकास और नदियों को बचाने की सरकार की मुहिम कैसे फलीभूत हो रही है। कितना अपना पन और प्यार था उस वक्त को शब्दों में पिरोना आज की पीढ़ी के लिये सम्भव नही होगा।  1976 में नोएडा की स्थापना हुई।
उस वक्त पॉल्यूशन भी नही था । खेतो में मटर  व चने होते थे । जिनको खेतो में ही भून कर बड़े चाव से सब खाते थे । गाँव की भाषा मे होला कहते थे शायद पढ़ीलिखी पीढ़ी को मालूम नही होगा ! गर्मियों में तरबूज व खरबूजे वो भी बगैर खाद के होते थे जिनको आजकल की भाषा मे ऑर्गेनिक कहते है उनको भी खाने का एक अलग ही आनन्द था । खेतो की पग डंडियों से निकल कर गाँव आने में जो आनन्द आता था अब तो उस माहौल के लिये तरस जाते है । तब खेतो में सरसों के फूलों की खशबू आती थी । तब हमारे यहां मक्का,ज्वार,बाजरे के खेतों में सेंद बोते थे उनकी भीनी भीनी खशबू पूरे वातावरण को महका कर रखती थी । अब फेक्ट्रियो से धुआं निकलता है,रिहायशी इलाके और गांवों में सीवर की दुर्गंध आती है । पॉल्यूशन तब था या अब सोचना ? धीरे धीरे नोएडा आने के बाद लोगो को यानि यहाँ कि जनता को बताया गया कि हमारे यहाँ भूमि लेकर फैक्ट्रियां लगाई जायेगी ।जिससे लोगो को रोजगार मिलेगा । ग्रामीणों को रोजगार का लालच देकर भूमि ली गई मगर मिला कुछ नही । उसके बाद 1985 में डवलपमेंट के लिये राज्य सरकारों की सहमति से एक नया कानून बना एनसीआर एक्ट 1985 । एनसीआर एक्ट 1985 में करीने से बसावट हो जिससे बेतरतीब कंक्रीट का जंगल ना बने । एनसीआर एक्ट 1985 के कानून के तहत ही एनसीआर का एरिया चिन्हित किया गया राज्यो की सरकारों की सहमति से । अब सवाल आता है उस वक्त भूमि ज्यादा थी खेती की तब पॉल्यूशन नही था और ना ही अनार्की थी माहौल में जो आजकल अपने पूरे शबाब पर है । एनसीआर एक्ट 1985 के तहत ही भूमि का अधिग्रहण होना था इसी कानून के तहत ही डवलपमेंट होना था । गाँव के व्यक्ति इतने सीधे थे उनको आभास ही नही था कि उनकी आने वाली पीढ़ियों को खत्म कर स्लम बस्तियों में तब्दील कर रहने को मजबूर किया जायेगा ।
जो आज हो रहा है । आजकल पंजाब और हरियाणा के किसानों को  दोषी ठराहया जा रहा है दिल्ली एनसीआर में पॉल्यूशन के लिये । जबकि पहले दिल्ली के चारो तरफ खेती ही होती थी और नोएडा से आगरा तक यमुना के साथ,फरीदाबाद,गुड़गांव  आदि दिल्ली के साथ लगे सभी जगहों पर खेत ही होते थे । उस समय भी पराली जलती थी लेकिन उस समय तो गाँव मे खाना भी चूल्हे पर उपले की आग में बनता था । शाम को गाँव मे सर्दियों में लोग इक्कठे होकर आग जला कर ठंड में तापते थे जो आजकल नही है । उसको हमारे यहाँ तो उस आग जलाने को पुअर कहते थे जिसको आजकल की पढ़ी लिखी पीढ़ी जानती ही नही है । 
अब सोचने का विषय ये है कि खेत होने के बाद पोलयूशंन नही था तो अब क्यो है । इसका मतलब ये पराली के नाम पर ग्रामीणों को कटघरे में खड़ा करना गलत है 
 असल कारण भूमि पर कंक्रीट का जंगल बना कर ग्रीन एरिया को खत्म कर पॉल्यूशन को पैदा किया गया पढ़ी लिखी पीढ़ी द्वारा नाकि किसानों के द्वारा । अब आप टावर बनाओगे 30,40,50 मंजिल तक और पेड़ की हाइट होती है मकान के 2 मंजिल तक तो बाकि की मंजिल के लोगो को ग्रीन एरिया क्या होता है पता ही नही  !!
जब टावर बनेंगे तो जरनेटर लगेंगे जबकि 2 मंजिला मकानों में खुली जगह होती । उदाहरण के तौर पर नोएडा 5 लाख लोगों को बसाने लिये बना उसमें ग्रामीण आबादी भी समाहित थी मगर आज सेंसेक्स तो कुछ और कहता है हकीकत ये नोएडा में आबादी 50 लाख से अधिक है । इससे आप सबको अंदाजा हो जायेगा कि जितनी भी समस्याऐ है वो सब इस कंक्रीट के जंगल का ही नतीजा है । जिस पर कोई चर्चा नही करेंगे । इसी तरह दिल्ली के चारो तरफ कंक्रीट के जंगल का नतीजा है और दिल्ली में जनसँख्या के घनत्व बढ़ने का नतीजा है सब कुछ जैसे जाम,पॉल्यूशन, रोजगार समस्या आदि ।
वैसे जब भी जागे तभी सवेरा । अब भी सरकारे,नेता,नोकरशाह व न्याय पालिका सचेत हो जाये तो सब कुछ सुधारा जा सकता है ।  हिंडन के पास छजारसी गाँव 2001 मे कैसा था और अब 2019 में कैसा है स्वंम तस्वीरों में देखना। टावरों के साथ सड़को पर पेड़ो की हालात भी स्वंम देखो और विचार करो कि पिछले 20 सालों में अंधाधुंध भूमि का अवैध अधिग्रहण कर कंक्रीट का जंगल विकास है या विनाश ये जनता स्वंम तय करे ।
डवलपमेंट के इतना अंतर है कि पहले नोएडा से ग़ाज़ियाबाद जाने में समय लगता था पैदल या साइकिल पर 30 से 50 मिनट अब गाड़ी से लगते है डेढ़ से 2 घण्टे । 
इससे भी परिभाषित हो जायेगा विकास या विनाश ।
एनसीआर एक्ट 1985 की 1989  में रीजनल प्लान बनी थी पूरे एनसीआर की । जिसको   सभी सरकारों ने ठंडे बस्ते में डाल कर बंद कर दिया । एनसीआर एक्ट 1985 के कानून का उलंघन ही इन सब समस्याओं की जड़ है जिस पर सबने आँखे मूंद रखी है । टीवी और अखबारों में रोजमर्रा की चर्चा वास्तविकता से दूर सिर्फ और सिर्फ टीआरपी बढाने के लिये है ।


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