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पॉलीथिन से मुक्ति मिले भी तो कैसे !

पॉलीथिन पूरे विश्व में प्रतिवर्ष आठ करोड़ टन उत्पादन होता है ।  राजेश बैरागी-
हमारी दैनिक जरूरतों में अनिवार्य हो चुकी पॉलीथिन को सरकार आगामी २ अक्टूबर से पूरी तरह प्रतिबंधित करने जा रही है। हालांकि मौजूदा समय में अनगिनत उत्पादों को ढोने में काम आ रहे इस जानलेवा साधन का कोई विकल्प दूर दूर तक दिखाई नहीं देता और सरकार भी संकल्प के अलावा कोई इंतजाम नहीं कर सकी है।
    मिखाइल क्लासनिकोव को कभी शांति का नोबेल मिला था जो एके ४७ बंदूक बनाने पर वापस ले लिया गया था।पॉलीथिन के सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाले हर्मन स्टॉडिंगर को भी १९२२ में नोबेल दिया गया था। हालांकि १८३३ में जोंस बर्लिजियस नामक शख्स द्वारा नामकरण किये गये पॉलीमर को १९०७ में बैकलेंड नामक वैज्ञानिक ने सिंथेटिक पॉलिमर के रूप में पहली बार दुनिया के सामने पेश किया। आज यह वस्तु हमारी दिनचर्या की अनिवार्य जरूरत है।दूध से लेकर शराब तक पॉलीथिन के हवाले है।पूरे विश्व में प्रतिवर्ष आठ करोड़ टन इसका उत्पादन होता है। सिंथेटिक पॉलिमर बायोडिग्रेडेबल नहीं होता यानी यह गलता नहीं है इसलिए जमीन की तहों में आराम करने से लेकर नदी नाले नालियों पर इसका राज हो चला है।खाली हाथ बाजार जाकर मनचाहा सामान पिन्नी में लेकर आना बेशर्मी का प्रतीक नहीं बल्कि बेफिक्र जीवन शैली का साधन बन चुका है।जब यह नहीं था तब काम कैसे चलता था? तब लाइफ इतनी रफ्तार में कब थी। अब इस जानलेवा साधन (सूखा, प्रदूषण के कारण) से मुक्ति कैसे मिले। यह सवाल अभी अनसुलझा है। एक सीमित दायरे में इसका उपयोग छोड़ा जा सकता है परंतु सुबह से अगली सुबह तक और जीवन के हर दिन में शामिल सिंथेटिक पॉलीमर विक्रम और वेताल की तरह एक दूसरे का पर्याय बन चुके हैं। सरकार संकल्प से आगे बढ़े तो शायद कुछ संभव हो सकता है।( फ्यूचर लाईन टाइम्स हिंदी साप्ताहिक नौएडा )


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