मृतक पितरों का श्राद्ध वेदविरुद्ध तथा जीवितों का श्राद्ध वेदानुकूल है

वेद जीवित पितरों की सेवा का ही वर्णन करते हैं, मृतकों की सेवा का नहीं , जैसाकि आसीनासो अरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्याय।
पुत्रेभ्यः पितरस्तस्य वस्वः प्रयच्छत इहो दधात ॥ यजुः० १९ । ६३
भाषार्थ-हे पितरो! हवि देनेवाले मनुष्य यजमान के लिए आप धन देवें। आप कैसे हैं? लाल रंग के ऊन के आसनों पर बैठे हुए। और हे पितरो! आप पुत्र और यजमानों से उस धन का धारण करो, और वे आप इस संसार में हमारे यज्ञ में रस धारण करो ॥६३॥ -महीधर
ऊन के लाल आसनों पर बैठना और यजमान को धन देना तथा उनसे धन लेना और यज्ञ में रस धारण करना जीवित पितरों से ही सम्भव हो सकता है, मृतकों से नहीं, अतः मृतक पितरों का श्राद्ध वेदविरुद्ध तथा जीवितों का श्राद्ध वेदानुकूल है।
अब सोचने वाली बात ये है की - यह श्राद्ध तीन पुश्त तक ही क्यों दिया जाता है? इससे ऊपर की पीढ़ी के लिए क्यों नहीं दिया जाता? क्या तीन पीढ़ी से ऊपर के पितरों का अवश्य ही मोक्ष हो जाता है? वास्तविक बात तो यह है कि पितरों की तीन पीढ़ी तक ही प्रायः जीवित रहना सम्भव है। अधिक पीढ़ी तक नहीं, अतः पौराणिक ग्रन्थों में पिता, पितामह, प्रपितामह इन तीन पीढ़ी तक ही श्राद्ध का प्रतिपादन सिद्ध करता है कि श्राद्ध जीवित पितरों का ही है, मृतकों का नहीं है। मृतकश्राद्ध का खण्डन तो पुराणों में भी विद्यमान है, जैसेकि


जीवित पितर
 अज्ञं हि बालमित्याहुः पितेत्येव तु मन्त्रदम् ॥ ९५॥
पितामहेति जयदमित्यूचुस्ते दिवौकसः ॥ ९६॥
- भविष्य० ब्राह्म० अ० ४
अज्ञानी का नाम बालक है और मन्त्र देनेवाले का नाम पिता है और उन देवताओं ने जय नाम ब्राह्मण को पितामह कहा है।


 इत्येवं क्षत्रियपिता वैश्यस्य च पितामहाः।।
प्रपितामहश्च शूद्रस्य प्रोक्तो विप्रो मनीषिभिः ॥ ६९॥
- भविष्य० ब्राह्म० अ० ४
इस प्रकार से ब्राह्मण क्षत्रिय का पिता, वैश्य का पितामह तथा शूद्र का प्रपितामह बुद्धिमानों ने कहा है।


मृतक-अन्न पाप
 मृतान्नं मधु मांसं च यस्तु भुञ्जीत ब्राह्मणः।
स त्रीण्यहान्युपवसेदेकाहं चोदके वसेत् ॥५९॥
- भविष्य० ब्राह्म० अ० १८४
मुर्दे के निमित्त अन्न, शराब और मांस जो ब्राह्मण खावे वह तीन दिन उपवास करे और एक दिन पानी में रहे।


पितर सन्तान से तृप्त


 ब्रह्मचर्येण मुनयो देवा यज्ञक्रियाध्वना।
पितरः प्रजया तृप्ता इति हि श्रुतिरब्रवीत् ॥ २६॥
-शिव० कैलास० अ० १२
ब्रह्मचर्य से मुनि तृप्त होते हैं, यज्ञ करने से देवता तथा सन्तान पैदा करने से पितर तृप्त होते हैं-यह वेद का वचन है।


ऋतु का नाम पितर
 ऋतवः पितरस्तस्मादित्येषा वैदिकी श्रुतिः।
यस्मादृतुषु सर्वे हि जायन्ते स्थाणुजंगमाः॥४५॥
-शिव० वायु० ७ खं १ अ० १७
मौसमों का नाम पितर है, यह वेद की श्रुति है, जिस कारण ऋतुओं में सारे जड़-जंगम पैदा होते हैं।


अपना श्राद्ध
 मातृश्राद्धे मातृपितामह्यौ च प्रपितामही।
आत्मश्राद्धे तु चत्वार आत्मा पितृपितामहौ ॥४१॥
-शिव० कैलास० अ० १२
माता के श्राद्ध में माता, दादी तथा परदादी मानी जाती है और अपने श्राद्ध में चार-आत्मा, पिता, पितामह, प्रपितामह माने जाते हैं।


जीवितों का तर्पण
पीनीयदानं परमं दानानामुत्तमं सदा।
सर्वेषा जीवपुञ्जानां तर्पणं जीवनं स्मृतम्॥१॥
पुष्पिताः फलवन्तश्च तर्पयन्तीह मानवान्।
इहलोके परे चैव पुत्रास्ते धर्मतः स्मृताः ॥ २९॥
-शिव०शिव०उमा०अ० १२
पानी का दान सब दानों में परम उत्तम है, क्योंकि यह सब जीवसमूह का तर्पण करनेवाला तथा सबका जीवन है। फूल-फल से युक्त ये वृक्ष भी मनुष्यों का तर्पण करते हैं। इस लोक में और परलोक में भी इसलिए ये धर्म से पुत्र हैं।


जीवित के लिए पिण्ड


चाण्डालोच्छिष्टपिण्डेन जठराग्निमतर्पयत् ॥ २१॥
-शिव० कोटि० रुद्र० अ० ९
उसने चाण्डाल के जूठे पिण्ड अर्थात् भोजन से पेट की अग्नि का तर्पण अर्थात् तृप्त किया।


 रे रे दैत्याधमसखे परपिण्डोपजीवक ॥ ३३॥
-शिव० रुद्र० युद्ध० अ० ५३
हे दैत्य ! हे अधम के मित्र! हे पराये पिण्ड अर्थात् अन्न से जीनेवाले।


 स्वस्ति प्राप्नुहि भद्रं ते गमिष्यामः स्वमालयम्।
श्राद्धकर्माणि विधिवद्विधास्य इति चाब्रवीत् ॥१९॥
स गत्वा निलयं राजा श्राद्धं कृत्वा विधानतः ॥ २१॥
-वाल्मी० बाल० स० ७२
राम के विवाह समय जनक बोला कि आपको कल्याण हो, हम विधिपूर्वक श्राद्धकर्म करने के लिए जाते हैं। राजा ने घर पर जाकर श्राद्ध किया।


अपना किया मिलता है।
स्वयं कृतानि कर्माणि जातो जन्तुः प्रपद्यते।
नाकृत्वा लभते कश्चित् किंचिदत्र प्रियाप्रियम् ॥ ३०॥
-महा० शान्ति० अ० २९८
पैदा हुआ जीव स्वयं किये कर्मों को प्राप्त होता है, बिना किये कोई कुछ भी प्रिय-अप्रिय को प्राप्त नहीं होता।


किये कर्म का नाश नहीं
निरन्तरं च मिश्रं च लभते कर्म पार्थिव।
कल्याणं यदि वा पापं न तु नाशोऽस्य विद्यते ॥ १७॥
हे राजन् ! निरन्तर और मिश्रित कर्मों को मनुष्य प्राप्त होता है चाहे कल्याण चाहे पाप, कर्मों का नाश नहीं होता।


किसी का कर्म किसी को नहीं मिलता
नायं परस्य सुकृतं दुष्कृतं चापि सेवते ।
करोति यादृशं कर्म तादृशं प्रतिपद्यते ॥२२॥
-महा० शा० अ० २९०
यह जीव दूसरे के पुण्य और पाप का सेवन नहीं करता, जैसा कर्म करता है वैसा फल पाता है।


कोई किसी के लिए नहीं करता
कः कस्य चोपकुरुते कश्च कस्मै प्रयच्छति।
प्राणी करोत्ययं कर्म सर्वमात्मार्थमात्मना ॥१॥
-महा० शा० अ० २९२
कौन किसका उपकार करता है, कौन किसके लिए देता है ! यह प्राणी सारा कर्म स्वयं अपने लिए करता है।


कर्मफल कर्ता को
यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्।।
एवं पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ॥ २२॥
- महा० अनु० अ० ७
जैसे हज़ार गौवों में से बछड़ा अपनी माता को प्राप्त होता है, ऐसे ही पूर्वकृत कर्म कर्ता को प्राप्त होता है।


कोई किसी का माता-पिता नहीं
 ने माता न पिता किञ्चित् कस्यचित् प्रतिपद्यते।
दानपथ्यौदनो जन्तुः स्वकर्मफलमश्नुते ॥ ३९॥
-महा० शान्ति० अ० २९
कोई किसी की न माता है, न पिता है। दानरूप मार्ग से व्यय करनेवाला जीव अपने कर्म के फल को भोगता है।


कलि में श्राद्धनिषेध


 न श्राद्धेस्तर्पयिष्यन्ति देवतानीह मानवाः ॥ ४६॥
-महा० वन० अ० १९
कलियुग में इस संसार में मनुष्य देवता और पितरों का श्राद्धों से तर्पण नहीं करेंगे।


इन १६ प्रमाणों से सिद्ध है कि जीवों में कोई किसी का माता-पिता नहीं, किया कर्म नाश नहीं होता, कर्म का फल कर्ता को मिलता है, किसी के कर्म का फल किसी अन्य को नहीं मिलता। पितर ज्ञानियों तथा ऋतुओं का नाम है, पितर सन्तान से तृप्त होते हैं, पिण्ड शब्द अन्न अर्थ में तथा श्राद्ध शब्द जीतों के लिए और विवाह में भी आता है और तर्पण शब्द जीवितों के लिए आता है। मृत का अन्न खाना पाप है, तथा अन्त में यह भी सिद्ध है कि कलियुग में श्राद्ध नहीं होंगे, यह पुराणों की व्यवस्था है।


साभार - पंडित मनसा राम
प्रस्तुति - 'अवत्सार'


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