इस सन्दर्भ में वेदमाता कहती है कि-
"तव शरीरं पतयिष्ण्यवर्वन् " -यजु: २९/२२
अर्थात् हे वीर पुरुष ! तेरा शरीर पतनशील है ,अत: यौवन में ही उद्योग कर लें ; परन्तु इस यौवन को जो जितना समय वर्तता है,वह इसे उतना ही दीर्घ काल तक स्थिर रखता है अन्यथा असंयम और अजितेन्द्रियता के कारण बडे -२ सामाज्य समाप्त हो जाते है, पुन: यह शरीर वा इसका यौवन क्या चीज है ।
एतदर्थं वेदमाता कहती है कि -
" परिमाग्ने दुश्चरिताद्.................अमृताँ अनु !!" -यजु: ४/२८
अर्थात् हे परमेश्वर ! मुझे सब प्रकार के दुष्टाचार से हटा कर उत्तम चरित्र में स्थापित कीजिए । सदाचारी बनकर मैं मुक्त अथवा दीर्घायु पुरुषों का अनुगामी होकर सुदीर्घायु और उत्तम जीवन से युक्त होकर उत्तम मार्ग में स्थिर रहूं ।
पुन: किसी कवि ने भी उत्तम ही कहा है- "वह चाल चल कि उम्र खुशी से कटे तेरी ,
वह काम कर कि याद तुझे सब किया करें॥"
अपने चरित्र को इतना निर्मल बना और उस निर्मलता से.....
"आ भाति प्रदिश्चतस्र: " -अथर्व. २/६/१
अर्थात् चारों दिशाओं को ज्योतिष्मान् कर दो , एतदर्थं बस, हम उत्तम चरित्र के लिए ही पुरुषिर्थ करें और यौवन में ही उत्कृष्ट उद्योग करें ।
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