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वेदों में वर्णित ईश्वर को जानिए ।

डॉ विवेक आर्य


देवकीनंदन ठाकुर जी महाराज सनातन धर्म से सम्बंधित कथावाचाक है। किसी मंदिर में आपके द्वारा कहा गया कथन कि मंदिर के भीतर प्रवेश करते समय जूते के साथ साथ बुद्धि भी बाहर रखकर जाये सोशल मीडिया में प्रचारित हो रहा है। इस सन्देश में साथ में कहा गया है कि भगवान के समक्ष केवल हृदय के साथ प्रवेश करे। यह किस मंदिर में लिखा हुआ है। हमें मालूम नहीं चला। मगर इस कथन को पढ़कर हमारे मन में अनेक शंकाएं उत्पन्न हो गई।


वेद ईश्वरीय ज्ञान है। वेद सम्मत कोई भी कथन सत्य कहा जायेगा और वेद विरुद्ध असत्य। देवकीनंदन जी के कथन में अनेक तथ्य वेद विरुद्ध है। जिससे यह केवल एक लोकलुभावन मगर असत्य कथन जैसा प्रतीत होता हैं।


सर्वप्रथम तो ईश्वर सृष्टि के कण कण में विद्यमान और सर्वव्यापक है। इसलिए सृष्टि में ऐसा कोई स्थान नहीं है। जहाँ पर आप अपनी बुद्धि को ईश्वर से दूर रख सके। इसलिए यह कथन असत्य है।


दूसरे वेद में स्पष्ट रूप बताया गया है कि परमात्मा को आत्मा के अंदर हृदयाकाश में योगी लोग खोजते हैं। बुद्धि, आत्मा, परमात्मा, हृदय सभी हमारे अंदर ही है। तो ठाकुर जी किसे किससे अलग कर रखने की बात कर रहे हैं।


तीसरे वेदों में अनेक मन्त्रों में बुद्धि को सन्मार्ग पर चलने की, बुद्धि की प्राप्ति की, बुद्धि के अलग अलग प्रकार जैसे मेधा, सुमेधा, प्रज्ञा, ऋतम्भरा आदि की प्राप्ति का सन्देश दिया गया हैं। फिर ईश्वर से बुद्धि को दूर रखने जैसा बचकाना कथन अज्ञानता का नहीं तो किसका बोधक है?


जब हमारे स्वयंभू कथावाचक ही वेद विरुद्ध कथन करेंगे तो फिर वे सामान्य जनता को क्या धर्मशिक्षा देंगे। यह चिंतन करने का विषय है।


वेद आदि के आधार पर हम अपनी बात को सिद्ध करेंगे।


ईश्वर सर्वव्यापक है


1. अंत रहित ब्रह्मा सर्वत्र फैला हुआ है। अथर्ववेद १०/८/१२


2. धूलोक और पृथ्वीलोक जिसकी (ईश्वर की) व्यापकता नहीं पाते। ऋग्वेद १/५२/१४


3. हे प्रकाशमय देव! आप और से सबको देख रहे है। सब आपके सामने है। आप सर्वत्र व्यापक है। ऋग्वेद १/९७/६


4. वह ब्रह्मा मूर्खों की दृष्टी में चलायमान होता है। परन्तु अपने स्वरुप से (व्यापक होने के कारण) चलायमान नहीं होता है। वह व्यापकता के कारण देश काल की दूरी से रहित होते हुए भी अज्ञान की दूरिवश दूर है और अज्ञान रहितों के समीप है। वह इस सब जगत वा जीवों के अन्दर और वही इस सब से बाहर भी विद्यमान है। यजुर्वेद ४०/५


5. सर्व उत्पादक परमात्मा पीछे की ओर और वही परमेश्वर आगे, वही प्रभु ऊपर, और वही सर्वप्रेरक नीचे भी है। वह सर्वव्यापक, सबको उत्पन्न करने वाला हमें इष्ट पदार्थ देवे और वही हमको दीर्घ जीवन देवे।ऋग्वेद १०/२६/१४


6. जो रूद्र रूप परमात्मा अग्नि में है। जो जलों ओषधियों तथा तालाबों के अन्दर अपनी व्यापकता से प्रविष्ट है।- अथर्ववेद ७/८७/१


परमात्मा को अंदर आत्मा में हृदयाकाश में खोजते है के प्रमाण।


1. अथर्ववेद के 10/2/31 मंत्र में इस शरीर को 8 चक्रों से ...रक्षा करने वाला (यम, नियम से समाधी तक) और 9 द्वार (दो आँख, दो नाक, दो कान, एक मुख, एक मूत्र और एक गुदा) से आवागमन करने वाला कहा गया हैं, जिसके भीतर सुवर्णमय कोष में अनेक बलों से युक्त तीन प्रकार की गति (ज्ञान, कर्म और उपासना ) करने वाली चेतन आत्मा हैं। इस जीवात्मा के भीतर और बाहर परमात्मा हैं और उसी परमात्मा को योगी जन साक्षात करते हैं।


2. "इंद्रियों के परे(सूक्ष्म)अर्थ(सूक्ष्म-तन्मात्र-शब्द-तन्मात्र,स्पर्श-तन्मात्र,रूप-तन्मात्र,रस-तन्मात्र व गन्ध-तन्मात्र)है।"
कठ० ६।७।।
अर्थों से परे मन है। मन से परे बुद्धि है। बुद्धि से परे महान् आत्मा(महत्तत्त्व)है। महत् से परे अव्यक्त(प्रकृति)है। प्रकृति से परे पुरुष(परमात्मा)है।
पुरुष अर्थात परमात्मा से परे कुछ नहीं है।


3. सर्वाननशिरोग्रीव: सर्वभूतगुहाशय:।
सर्वव्यापी स भगवान् तस्मात्सर्वगत: शिव:।।
-श्वेता० ४/१४
जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कर्ता एक ही है, जो सब प्राणियों के हृदयाकाश में विराजमान है, जो सर्वव्यापक है, वही सुखस्वरूप भगवान् शिव सर्वगत अर्थात् सर्वत्र प्राप्त है।


4. अरा इव रथनाभौ संहता यत्र नाडय: स एषोअन्तश्चरते बहुधा जायमान:।ओमित्येवं ध्यायथ आत्मानं स्वस्ति व: पाराय तमस: परस्तात्।।
मुण्डक २।२।६।।
"जिस प्रकार से रथ के पहिये के केन्द्र में अरे लगे रहते हैं,उसी प्रकार शरीर की समस्त नाड़ियाँ जिस हृदय-देश में एकत्र स्थिर हैं,उसी हृदय में नाना रूप से प्रकट होने वाले परब्रह्म परमात्मा अन्तर्यामी रूप से रहते हैं।इन सबके आत्मा प्रभु का 'ओ३म्' नाम के द्वारा ही ध्यान करो जो अज्ञान-रूप अन्धकार से सर्वथा अतीत और भवसागर के दूसरे पार है,उस प्रभु को प्राप्त करो।तुम्हारा कल्याण हो।"


वेदों में ईश्वर से बुद्धि प्रदान करने की प्रार्थन के प्रमाण


1. ओ३म्। भूर्भुवः स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।। -यजु०३६/३


हे सर्वरक्षक! सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर! आप सकल जगत् के उत्पादक और वरण करने योग्य हैं। हम आपसे कामना करने योग्य, आनन्दप्रद, शुद्ध एवं तेजस्वरूप का ध्यान करते हैं। आप हमारी बुद्धियों को श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करें।


2. यजुर्वेद 32 वें अध्याय में ईश्वर से मेधा बुद्धि की कामना 13 से 15 मन्त्रों में की गई है। इस सूक्त के रही का नाम ही मेधा काम है।


32/13 मंत्र में कहा गया है कि हे मनुष्यों परमात्मा की उपासना और सेवा करके सत्य और असत्य का सम्यक विभाग करने वाली मेधा बुद्धि को प्राप्त करें।


32/14 में कहा गया है कि हे विद्या के जताने हारे ईश्वर मुझे प्रशंसित करने वाली बुद्धि अर्थात मेधा प्रदान कीजिये।


32/15 में कहा गया है कि हे मनुष्यों ईश्वर या विद्वान हमें धर्मयुक्त क्रिया से शुद्ध बुद्धि अर्थात मेधा प्रदान करे।


3. ऋग्वेद 6/47/10 में परम ऐश्वर्यवान परमेश्वर से पांच प्रकार की इच्छा पूर्ण करने की प्रार्थना की गई है। प्रथम सुख, द्वितीय दीर्घजीवन, तृतीय तीक्षण बुद्धि, चतुर्थ परमात्मा से प्रेम और पाँचवा विद्वानों का संग।


4. ऋग्वेद 1/3/2 मन्त्र में ईश्वर से प्रार्थना की गई है हमारी बुद्धि को तीव्र कीजिये। तीव्र बुद्धि से हम ज्ञान की वाणियों का अर्थात वेद के मन्त्रों का सेवन करें , इन का स्वाध्याय करें , इन का चिन्तन करें , इनका मनन करें , इनको अपने जीवन में धारण करें ।


5. ऋग्वेद 9/97/36 मंत्र में आया है कि हे सोम, तू हमें सब ओर से पवित्र कर, हमारे अन्दर पूरे जोश से प्रविष्ट हो और हमारी वाणी को सशक्त कर। हम में उत्तम बुद्धि उत्पन्न कर।


इस प्रकार से वेदों प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि ईश्वर सर्वव्यापक है, उनकी हृदयाकाश में स्तुति, पप्रार्थना और उपासना करनी चाहिए। ईश्वर से सदा बुद्धि को श्रेष्ठ मार्ग पर चलाने की प्रार्थना करनी चाहिए।


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