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स्वामी दयानन्द के पत्रों में स्वाभिमान की चर्चा ।

डा.अशोक आर्य 
[पूर्ण संख्या ३० ]                      विज्ञापनपत्रमिदम्
          जो अभिमान करता है सो पंडित नहीं होता , किन्तु वह काम मुर्ख का ही है | और जो पंडित होता है सो तो कभी अपने मुख से अपनी बड़ाई नहीं करता । - १ 
[पूर्ण संख्या १५२ ]                        पत्र 
          हमारे आर्य्यवर्त देश के श्रीमान् महाशय श्री महाराणाजी बड़े बुद्धिमान् हैं | एश्वर्य्य प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त करे । - २                       
[ पूर्ण संख्या ३८० ]                पत्र-सारांश 
          मैं सिवाय वेदोक्त सनातन आर्यावर्तीय धर्म के अन्य सुसायटी समाज वा सभा के नियमों को न तो स्वीकारता था, न करता हूँ, न करूंगा | क्योंकि यह बात मेरे आत्मा की दृढ़तर है , शरीर, प्राण भी जायें तो भी इस धर्म से विरुद्ध कभी नहीं हो सकता । - ३  
[ पूर्ण संख्या ४२६ ]                  पत्र
                              || भावार्थ ||
         अहो हम आश्चर्य में हैं कि हमारा पत्र काकतालीय न्याय की भाँती किस प्रकार सुख दु:ख संयोग का सूचक हुआ ! परन्तु इस विचार से हमको संतोष है कि आप में जो विद्वानों से सत्कार के योग्य हैं । शोक का लेश भी नहीं ठहर सकता । - ४   


[ पूर्ण संख्या ४३५ ]                   पत्र
          हम आर्यों को वैष्णव आदि के सामान कभी मत समझ लेना कि जैसे उनके रथ
१. देखें ऋषि दयानंद सरस्वती के पत्र ओर विज्ञापन संपा. युधिष्ठिर मीमांसक भाग १ पृष्ट                    २७ 
२. देखें ऋषि दयानंद सरस्वती के पत्र ओर विज्ञापन संपा. युधिष्ठिर मीमांसक भाग १ पृष्ट               १९६-१९७  
३. देखें ऋषि दयानंद सरस्वती के पत्र और विज्ञापन भाग १ सम्पादक युधिष्ठिर मीमांसक पृष्ट                             ४१८ 
४. देखें ऋषि दयानंद सरस्वती के पत्र और विज्ञापन भाग १ सम्पादक युधिष्ठिर मीमांसक पृष्ट                             ४५९                     
                                     २ 
आदि निकालने के विषय को अदालत से जित लेते हो जैसे हमारे साथ कभी न कर सकोगे | क्योंकि जैसे पाषाण आदिक मूर्तिपूजक तुम हो वैसे वे भी हैं । और हम है परमेश्वर पूजक और तुम हो अनीश्वरवादी , अर्थात् स्वत: सिद्ध अनादि ईश्वर को अन्हीं मानते । - १ 
[ पूर्ण संख्या ४३५ ]                   पत्र
         ....मेरा विचार है कुछ पुरुष कला कौशल सिखाने के लिए जर्मनी भेज दिए जाएँ।परन्तु यदि यहीं आर्य्यावर्त में ऐसा सोखाने वाले पुरुष मिला जाएँ तो बाहर जर्मनी को आदमी भेजने की कोई आवश्यकता नहीं । - २  


१. देखें ऋषि दयानंद सरस्वती के पत्र ओर विज्ञापन संपा. युधिष्ठिर मीमांसक भाग १ पृष्ट                    ४६८
२. देखें ऋषि दयानंद सरस्वती के पत्र ओर विज्ञापन संपा. युधिष्ठिर मीमांसक भाग १ पृष्ट                   ( ४८६  )


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