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सती प्रतिथेयी महर्षि दधिचि की ही पत्नी थी ।   डा.अशोक आर्य  

भारत देश में , जिसे ऋषियों - मुनियों की धरती कहा जाता है , अनेक उच्चकोटि के महात्मा हुए ।  इन महात्माओं के तप व त्याग ने इस देश को बहुत सी उपलब्धियां दीं ।  एसी ही महान् विभूतियों में महर्षी दधिचि भी एक हुए हैं ।  इन दधिचि ने एक एसा अमोघ अस्त्र बनाया था जिसके समबन्ध में कहा जाता है कि वह अचूक निशाना लगाता था तथा उसका निशाना कभी खाली न जाता था ।  पौराणिक कथाओं में इस शस्त्र के निर्माण में महर्षि दधिचि की हड्डियां प्रयोग हुईं थीं ।  यह सत्य है या नहीं किन्तु यह सत्य है कि एक अमोघ शस्त्र के निर्माता महर्षि दधिचि ही थे ।  हमारी कथानायिका देवी प्रतिथेयी इन महर्षि दधिचि की ही पत्नी थी ।
      देवी एक उच्चकोटि की पतिव्रता देवी थी तथा उनका नाम भारत की पतिव्रता देवियों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था ।  इस देवी के पिता विदर्भ के शासक थे ।  इस की एक अन्य बहिन भी थी , जिसका नाम लोपमुद्रा था ।  हमारी कथानायिका प्रतिथेयी एक धार्मिक प्रवृति की महिला थी तथा उसका प्रतिक्षण कठोर तपश्चर्या में ही व्यतीत होता था ।  इस पति - परायणा का अधिकतम समय अपने पति की सेवा सुश्रुषा में ही व्यतीत होता था ।  यह अपने पति के प्रति अत्यधिक अनुराग रखती थी ।  इस कारण वह किसी पल के लिए भी पति की आंखों से दूर नहीं होना चाहती थी । 
         वह तपोवन को ही अपना निवास बनाए थी तथा वन में निवास करने वाले सब प्राणियों को वह अपनी सन्तान का सा स्नेह देती थी एवं अपनी सन्तान के ही समान वह उन का पालन भी करती थी ।  इतना ही नहीं उसे ६२ भारतीय नारियां जंगल के वृक्षों , जंगल की लताओं तथा जंगल के अन्य पौधों से भी अपार प्रेम था । उन्हें भी वह मातृवत स्नेह देती थी तथा सदा उनकी देखभाल व भरण - पोषण की व्यवस्था करती थी । जो स्नेह इस ने जंगल के प्राणियों तथा वनस्पतियों को दिया , उसे उसकी साधना ही मानना चाहिये और उसे उसकी इस साधना का प्रतिफ़ल भी प्रत्यक्ष रुप में देखने को मिलने लगा ।  आश्रम में जो लताएं , जो वृक्ष तथा जो फ़ल और फ़ूल  लगे हुए दिखाई देते थे , आश्रम का भाग बन चुके थे |  यह सब अन्य लोगों के लिए चाहे जड ही हों ,किन्तु प्रतिथेयी इन सब को चेतन मानते हुए ही इन की सेवा तद्नुरुप ही करती थी ।  मानो यह सब वन्सपतियां उससे सदा बातें कर रही हों तथा अपनी व्यथा कथा सदा उसे सुनाती हों ।  एसा होने से मानो यह ऋषि पत्नी उनकी व्यथा कथा सुनकर उसका समाधान खोजने का भी प्रयास करती हो ।
       सब पेड , पौधे ,वनस्पतियां ही नहीं जंगल के अन्य प्राणी भी प्रतिक्षण प्रतिथेयी से वार्तालाप करते रहते थे , बातचीत करते रहते थे ।  यह सब अपनी इस देवी की आज्ञापालन में ही अपना कर्तव्य समझते थे तथा उसकी किसी भी बात का प्रतिरोध न करते थे ।  यह ही कारण था की जंगल के सब वृक्ष, सब लताएं , सब वनस्पतियां देवी प्रतिथेयी की सब आवश्याताएं स्वयमेव ही पूर्ण करते रहते थे ।  उसे इन लताओं आदि से कभी कुछ मांगने की आवश्यकता ही न हुई ।  वह यथा आवश्यकता उसकी सब आवश्यकताएं स्वयं - स्फ़ूर्ति से ही पूर्ण कर देते थे ।  इस कारण ही प्रतिथेयी ने अपना पूरा जीवन इन पेड , पौधों , लताओं वनस्पतियों की तथा अपने पति की सेवा में ही व्यतीत किया ।                                               


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