संत कबीर दास और मूर्तिपूजा - डॉ विवेक आर्य

डॉ विवेक आर्य : कबीर दास ने जीवन भर मूर्ति पूजा और साकार ईश्वर की उपासना का विरोध किया। पर समय का फेर देखिये जिन कबीर दास ने जीवन भर मूर्ति पूजा का विरोध किया था। उन्हीं कबीर के नाम पर एक स्वयंभू कबीरपंथी ने कबीर की ही मूर्ति बनाकर, उनकी मूर्ति को भोग लगाकर , उस भोग को प्रसाद कहकर अपने चेलो में बाँटना शुरू कर दिया। पहले कबीर को ईश्वर कहा फिर अपने आपको कबीर का अवतार और अब ईश्वर कहना आरंभ कर दिया।


निराकार ईश्वर की उपासना का कबीर का उपदेश उनके बीजक तक सिमट कर रह गया और गुरु के गुड़ के चेलो ने पूरी शक्कर बना डाली।


पाखंड को बढ़ावा देने वाला पाखंडी होता है। पाखंडी को गुरु अथवा ईश्वर कहने वाला अज्ञानी होता हैं। वैसे अज्ञानियों का यही हाल रहा तो रामपाल के मरने के बाद उसकी भी मूर्ति बनाकर उसे भी भोग लगाना शुरू कर देगे।


पढ़े कि कबीर दास ने मूर्ति पूजा के विरुद्ध क्या कहा हैं:-


पाहन पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजूं पहार। ताते यह चाकी भली, पीस खाय संसार।।


एक मूर्ति से तो एक चक्की ही अच्छी हैं , कम से कम संसार का भला तो करती हैं।


कांकर पाथर जोरि के मसजिद लई चुनाय। ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय।।''


मन तुम नाहक दुंद मचाये। करी असनान छुवो नहीं काहू , पाती फूल चढ़ाये।
मूर्ति से दुनिया फल माँगे, अपने हाथ बनाये।यह जग पूजैदेव–देहरा, तीरथ –वर्त–अन्हाये।
चलत –फिरत में पाँव थकित भे , यह दुख कहाँ समाये। झूठी काया झूठी माया , झूठे झूठे झुठल खाये। 
बाँझिन गाय दूध नहीं देहै , माखन कहँ से पाए। साँचे के सँग साँच बसत है, झूठे मारि हटाये।
कहैं कबीर जहँ साँच बसतु है, सहजै दरसन पाये।


मन तू व्यर्थ उलझन में है द्वंद मचा रहा है। फूल पत्ती चढ़ाकर भी कोई आकाश को हाथों से नहीं छु सकता। दुनिया अपने हाथ की बनाई हुई मूर्ति से फल मांगती है और देवी देवताओं की चौखट पूजती है। तीर्थयात्रा पर जाती है , व्रत रखती है और स्नान करती है। इसी चक्कर में चलते चलते पाँव थक जाते है यानी असली ईश्वर का ध्यान करने के बजाय हम कर्मकांडों पे अपना समय गवाते है और उसे भूल जाते है। आखिर यह दुख कहाँ समाएगा। ये काया भी झूठी है और संसार की माया भी झूठी है। हम व्यर्थ ही जूठन खाते फिरते है। बाँझ गाय जब दूध ही नहीं देगी तो मक्खन कहाँ से मिलेगा? सच्चे के साथ सच्चा ही बसता है, झूठे को भगा दो। कबीर कहते है की जहां सत्य का वास है वहां ईश्वर के दर्शन सहज हो जाते हैं।


मूर्ति के साथ साथ मंदिर/मस्जिद का विरोध कबीर ने किया है क्यूंकि ईश्वर मूर्ति में नहीं अपितु अपने ह्रदय में ही वास करते है। देखो :-


कबीर दुनिया देहुरे सीस नवावत जाई ,हिरदा भीतरि हरी बसै, तू ताहि सौ हयौ लाई


केसो कहा बिगाड़िया जो मूड़े सौ बार। मन को काहे न मूड़िये जामें विषय विकार।।


मन मथुरा दिल द्वारका काया काशी जानि। दसवां द्वार देहुरा तामें ज्योति पिछानि॥


मूर्ति पूजकों का विरोध उनकी दुकान कहकर कबीर स्वयं कर रहे हैं और उनके मुर्ख चेले कबीर के नाम की ही दुकान चला
ते हैं।


पूजा-घर मेँ मूर्ति, मीरा के संग श्याम। जितनी जिसकी चाकरी, उतने उसके दाम॥


कबीर का कहना है कि ईश्वर निराकार है ,निर्गुण है।


रामपाल को देखो , खुद ही स्वघोषित साकार भगवान बने बैठा है और अपने चेलो से अपनी पूजा करवा रहा है।


'कहैं कबीर बिचारि के जाके बरन न गांव । निराकार और निरगुणा है पूरन सब ठांव॥'


रामपाल के चेलो, अगर तुम रामपाल के सहारे रहे। तो तुम्हारा तुम्हारा बंटाधार ऐसे ही होगा जैसे कबीर ने कहा है:-


''पाहन केरा पूतरा, करि पूजै करतार। इन्ही भरोसे जे रहे, ते बूडे़ कालीधार।।''


कबीर दास ने देखों क्या कहा हैं –


''माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर। कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर।।''


''माला फेरे मन मुखी, तातै कछू न होई। मन माला को फेरता, घट उजियारा होई।।''


कबीर के संदेशों को न समझ कर आज कबीरपंथी उनकी शिक्षाओं के ठीक विपरीत चल रहे है। यह केवल और केवल अन्धविश्वास है। पाखंड के शिकार लोगों अगर आपके आचरण में परिवर्तन नहीं है। आपके मन में शुद्धता नहीं है। तो समझ लो तुम अपना मूल्यवान जीवन पाखंड के पीछे व्यर्थ कर रहे हो।


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