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आदतन रोने वालों को चुप कैसे कराया जाये?

व्यंग्य-
राजेश बैरागी:
जैसे सोने का नाटक करने वाले को नहीं जगाया जा सकता है ठीक उसी तरह आदतन रोने वालों को चुप कराना टेढ़ी खीर है। वास्तव में टेढ़ी खीर मैंने न तो आजतक देखी है और खाई भी नहीं है।खीर पतली या गाढ़ी होती है, जिस बर्तन में होती है, फैलकर उस बर्तन के आकार की हो जाती है परंतु टेढ़ी खीर? मुहावरा बनाने वाले भी टेढ़े ही होते होंगे। तो बात आदतन रोने वालों की। हमारे एक पड़ोसी से जब भी हालचाल पूछते यहां तक कि होली दीवाली रक्षाबंधन और करवाचौथ को भी तो उनका जवाब होता,-अरे भईया मर गए भईया। उनकी ही परंपरा में देश में अनेक लोग हैं।उनसे किसी सरकार के बारे में पूछने की गलती कर दीजिए बस फिर सुनिए उनकी रुलाई।अरे भाई सब देख लिए,सब एक से हैं। सरकारी कर्मचारी एक से लेकर सातवें आठवें वेतन आयोग की सिफारिशों को लेकर कभी खुश होते दिखे हैं। हमेशा आलोचना, हमेशा रोना गाना।जो मिला उससे खुश न होना और जो नहीं मिला अथवा जो मिलना भी नहीं है उसको लेकर हाय हाय। हालांकि ऐसे रोने वाले अंदर ही अंदर खुश रहते हैं। तो क्या दूसरे को दुखी करने के लिए रोने का नाटक करते हैं? इसमें क्या शक है?(फ्यूचर लाइन टाइम्स हिंदी साप्ताहिक नौएडा)


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