उपनयन संस्कार में मुख्य कर्म यज्ञोपवीत का धारण करना है।जब बालक विद्या ग्रहण करने का इच्छुक हो और पढ़ने में भी समर्थ हो जाये तब उसका यज्ञोपवीत संस्कार करा देना चाहिये।यह संस्कार बालक को द्विज बनाने के लिये किया जाता है।जिसका दूसरा जन्म हो उसे द्विज कहते हैं। बालक पहला जन्म माता पिता से प्राप्त करता है और दूसरा जन्म उसे आचार्य व विद्या से प्राप्त हुआ करता है। वैदिक संस्कृति में उपनयन संस्कार माता पिता के द्वारा मानो यह घोषणा होती है कि हमने बालक को भौतिक जीवन प्रदान कर उसे बाल्यकाल में जो शिक्षा व संस्कार हमारे द्वारा दिये जाने सम्भव थे,वे हमने दे दिये हैं परन्तु अब हम बालक को विशेषज्ञ आचार्यों के हाथों में देना चाहते हैं , जिससे कि यह विद्वान् बनकर अपने ध्येय धर्म,अर्थ व मोक्ष को प्राप्त कर सके। जिस सुन्दर काल में यह यज्ञोपवीत संस्कार सब स्थानों पर
प्रचलित था तब कोई अपठित व्यक्ति नहीं रह पाता था क्योंकि विद्याभ्यास करने के इस व्रतचिह्न को धारण कर सभी प्रभु के द्वार में किये गये अपने संकल्प के अनुसार बढ़ चढ़कर विद्याऽध्ययन किया करते थे। यज्ञोपवीत धारण करने से समाज को पता रहता था कि यह विद्याऽध्ययन में संलग्न है और जो यज्ञोपवीत धारण नहीं करता था उसे भी विद्या ग्रहण करने के चिह्न यज्ञोपवीत को धारण कराकर पढ़ने की प्रेरणा दी जाती है।
विद्याऽध्ययन के लिये आचार्य के समीप ले जाने को उपनयन कहते हैं। शिष्य को गुरु के निकट इतना आ जाना चाहिये कि वह गुरु के मन के अनुरूप एकमन वाला हो जाये। ऐसा करने पर वह गुरु के अन्तरतम में बस जाता है। तब उस शिष्य को गुरु के अन्दर बसा हुआ होने के कारण अन्तेवासी कहते हैं। यज्ञोपवीत श्रेष्ठ कर्म अर्थात् यज्ञ की ओर चलने का सूचक भी है। इस संकल्प चिह्न में तीन सूत्र होते हैं , जो ऋषिऋण, पितृऋण व देवऋण के सूचक होते हैं। भगवान् का साक्षात्कार करके प्रभु से प्राप्त ज्ञान के अनुसार शास्त्र की रचना करने वाले को ऋषि कहते हैं। उनके बनाये हुए शास्त्रों का प्रतिदिन स्वाध्याय करना व उस स्वाध्याय से प्राप्त ज्ञान गंगा का आगे आगे समाज में प्रवाहित करते रहने का स्मरण पहला सूत्र कराता है। यज्ञोपवीत का दूसरा सूत्र माता पिता आदि द्वारा हम पर छोड़े गये पितृऋण की याद कराता है। इस ऋण से मुक्त होने के लिये हमें भी उत्तम संतानों का निर्माण व माता पिता आदि की श्रद्धा पूर्वक सेवा शुश्रूषा करनी चाहिये। तथा तीसरा सूत्र हमें परमेश्वर देवता के ऋण को बताता है। इस ऋण की मुक्ति के लिये जैसे परमात्मा सबका भला चाहता है वैसे हम भी सबका कल्याण और नित्य प्रति ईश्वर की उपासना किया करें।इन संकल्पों को धारण कर हम अपना जीवन सफल कर सकते हैं।
उपनयन संस्कार से संयुक्त संस्कार वेदारम्भ संस्कार है । संस्कारों के क्रम में वेदारम्भ संस्कार ११ वां संस्कार है।यह संस्कार गायत्री मन्त्र से लेकर वेदों का ज्ञान कराने में सहायक सब वेदांग पुस्तकों सहित चारों वेदों का अध्ययन करने के लिये व्रत लेने का संस्कार है। वेद सृष्टि के आरम्भ में प्राप्त परमात्मा की वाणी है। परमात्मा ने अपना वेद नामक ज्ञान अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा नामक चार पात्र ऋषि-आत्माओं को साधन बनाकर उनके द्वारा संसार को प्रदान किया। सर्वव्यापक परमात्मा ने उन चार आत्माओं में विद्यमान होने से उन आत्माओं में पहले अपने पवित्र ज्ञान वेदों का प्रकाश करके फिर उन ऋषियों के मुख से अन्य मनुष्यों के लिये मन्त्रों का उच्चारण ऐसे कराया कि जैसे कोई वादक वाद्ययन्त्र से अपना इच्छित नाद निकालता है।भगवान् की वाणी वेद सब सत्य विद्याओं का भण्डार है इसलिये वेद का पढ़ना-पढ़ाना हम सबका परमधर्म है। वेदाध्ययन के इस परम धर्म का पालन करने के लिये प्रभु के द्वार यज्ञवेदी पर बैठकर वहां पर उपस्थित महापुरुषों के मध्य में अपना वेदारम्भ संस्कार कराकर व्रत लेना हम सबका आवश्यक कर्त्तव्य है। सभी संस्कार संस्कार स्त्री पुरुषों के तुल्य रूप से किये जाते हैं।
वेदारम्भ संस्कार में आचार्य के द्वारा होने वाले गायत्री मन्त्र के उपदेश से वेद पढ़ने का प्रारम्भ हो जाता है। आचार्य के उपदेश में गायत्री मन्त्र का उच्चारण व उसके अर्थ का ज्ञान कराकर परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का पाठ पढ़ाया जाता है। यह पाठ जहां गुरुकुल में आचार्य के द्वारा होता है वहां प्रथम गुरु माता का भी परम कर्त्तव्य है कि वह भी अपने बालक को गायत्री मन्त्र का उपदेश अवश्य कर दिया करे। गायत्री मन्त्र की विशेषता है कि इस मन्त्र के द्वारा परमेश्वर की उपासना करने से उपासक के मन में भरे हुए उसके अविद्या आदि सब क्लेश भस्म हो जाते हैं क्योंकि वह उपासक इस मन्त्र के अनुसार अपना पवित्र आचरण करता चलता है।इसलिये योगाभ्यास में सफलता प्राप्त करने के लिये प्रथम इस मन्त्र के द्वारा परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना व उपासना अवश्य करनी चाहिये।
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