वैदिक सिद्धांत के आधार पर जीवों को दो भागों में बाँटा गया है।

1. कर्म योनि 
2. भोग योनि


1.कर्म योनि - पूर्णतया कर्म योनि संसार में कोई नहीं है। मनुष्य एक ऐसा प्राणी जो कर्म योनि में आता है। पूर्णतया कर्म योनि में इसको भी नहीं कह सकते । यह भी उभय योनि में आता है । 
अर्थात उभय योनि उसे कहते हैं जिसमें कर्म भी किया जाता है और सुख दुःख का भोग भी किया जाता है । 


2. भोग योनि मनुष्य से इतर जितने भी प्राणी हैं वे सब भोग योनि हैं ।  वे सब मनुष्य योनि में किये वेद विरुद्ध, सिद्धांत विरुद्ध , आत्म विरुद्ध किए कर्मो का भोग भोगने के लिए हैं । इन योनियों में कोई भी शुभ अशुभ कर्म नहीं कर सकते हैं। कर्मो का फल भोगते भोगते मनुष्य योनि में जन्म लेने के कर्म शेष बचते हैं तभी मनुष्य का जन्म प्राप्त होता है।


जीवात्मा तीन अवस्थाओं में रहता है । 
1. बद्ध अवस्था यथा कीट पतंग , पशु, पक्षी, आदि।
2. उभय अवस्था यथा मनुष्य ।


3. मुक्त अवस्था यथा योग साधना करके कर्मबन्धन से मुक्त पूर्ण आनन्दमय आत्माएं।


जिस प्रकार से किसी भी पदार्थ की तीन अवस्थाएं होती हैं । जैसे ठोस , द्रव , गैस । 
इसी प्रकार कोई भी आत्मा जब पाप कर्मों का फल भोगने के लिए भोग योनि में जाता है तो यह उसकी ठोस अवस्था के समान होती है। 
तथा जब मनुष्य योनि में होता है तो यह इसकी द्रव अवस्था के समान है । यहीं से जीव बद्ध और मुक्त होता है जैसे द्रव अवस्था से ही कोई पदार्थ ठोस ओर गैस अवस्था में पँहुचता है 


अतः स्प्ष्ट है कि मनुष्य योनि से ही हम अपने अशुभ कर्मो से अधोगति को प्राप्त होते हैं। और यहीं से शुभ कर्मों को करके दुःखरहित मुक्त अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं।


जैसे किसी पेड़ का मूल कटने से वृक्ष सूख जाता है उसी प्रकार दुःखों का मूल पाप कर्म , झूठ, कपट, हिंसा , चोरी,  व्यभिचार , अविद्या आदि दोष छूटने से और दान, मातृ पितृ सेवा ,परसेवा ,विद्या,  सद्व्यवहार, यज्ञ, योग आदि अपनाने से जीव दुःखों से छूटकर सुख व उत्तरोत्तर मुक्ति प्राप्त कर लेता है। 


 सुभाष चन्द आर्य 


Post a Comment

0 Comments