एक ही गुरु मंत्र था-गायत्री।सभी का एक ही अभिवादन था-नमस्ते।एक ही विश्वभाषा थी-संस्कृत।

एक समय वह भी था जब सारे संसार का एक ही धर्म था-वैदिक धर्म।एक ही धर्मग्रन्थ था वेद।एक ही गुरु मंत्र था-गायत्री।सभी का एक ही अभिवादन था-नमस्ते।एक ही विश्वभाषा थी-संस्कृत।और एक ही उपास्य देव था-सृष्टि का रचयिता परमपिता परमेश्वर,जिसका मुख्य नाम ओ३म् है।तब संसार के सभी मनुष्यों की एक ही संज्ञा थी-आर्य।सारा विश्व एकता के इस सप्त सूत्रों में बँधा,प्रभु का प्यार प्राप्त कर सुख शान्ति से रहता था।दुनिया भर के लोग आर्यावर्त कहलाने वाले इस देश भारत में विद्या ग्रहण करने आते थे।अध्यात्म और योग में इसका कोई सानी नहीं था।


किन्तु महाभारत युद्ध के पश्चात् ब्राह्मण वर्णीय जनों के 'अनभ्यासेन वेदानां' अर्थात् वेदों के अनभ्यास तथा आलस्य और स्वार्थ बुद्धि के कारण स्थिति बदली और क्षत्रियों में "जिसकी लाठी उसकी भैंस" वाली एकतांत्रिक सामन्तवादी प्रणाली चल पड़ी।धर्म के नाम पर पाखंडियों अर्थात् वेदनिन्दक ,वेदविरुद्ध आचरण करने वालों की बीन बजने लगी,यह विश्वसम्राट् एवं जगतगुरु भारत विदेशियों का क्रीतदास बनकर रह गया।जो जगतगुरु सबका सरताज कहलाने वाला था उसे मोहताज बना दिया गया।


दासता की इन्हीं बेड़ियों को काटने और धर्म का वास्तविक स्वरुप बताने के लिए युगों-युगों के पश्चात् इस भारत भूमि गुजरात प्रान्त के टंकारा ग्राम की मिट्टी से एक रत्न पैदा हुआ जिसका नाम मूलशंकर रखा गया।जो बाद में'महर्षि दयानन्द सरस्वती' के नाम से विश्वविख्यात् हुआ।जब उसने धर्म के नाम पर पल रहे घोर अधर्म,अन्धविश्वास,रुढ़िवाद,गुरुड़मवाद,जन्मगत मिथ्या जात्याभिमान,बहुदेववाद,अवतारवाद,फलित ज्योतिष,मृतक श्राद्ध और मूर्ति पूजा आदि बुराइयों के विरुद्ध पाखण्ड-खण्डिनी पताका को फहराते हुए निर्भय नाद किया तो सारा भूमंडल टंकारा वाले ऋषि की जय जयकार कर उठा।


उसकी इस विजय के पीछे सबसे बड़ा कारण चिरकाल से सोई हुई मानव जाति को उसके वास्तविक धर्म से परिचित कराना था।महर्षि ने धर्म के नाम पर लुटती मानवता को अज्ञान अन्धकार से बाहर निकालकर सत्य सनातन वैदिक धर्म में पुनः स्थापित किया।आज यदि हम निष्पक्ष होकर तुलना करें कि वैदिक सम्पत्ति को हमारे समक्ष किसने प्रस्तुत किया तो वह मुक्तात्मा देव दयानन्द है,जिसके ऋण से उऋण हम तभी हो सकते हैं  जब वैदिक धर्म को भली-भाँति समझकर अपने जीवन को उसके प्रकाश से आलोकित करें।


वैदिक धर्म संसार के सभी मतों और सम्प्रदायों का उसी प्रकार आधार है जिस प्रकार संसार की समस्त भाषाओं का आधार संस्कृत भाषा है जो सृष्टि के प्रारम्भ से अभी तक अस्तित्व में है।संसार भर के अन्य मत ,पन्थ किसी पीर-पैगम्बर,मसीहागुरु,महात्मा आदि द्वारा चलाये गये हैं,किन्तु चारों वेदों के अपौरुषेय होने से वैदिक धर्म ईश्वरीय है,किसी मनुष्य का चलाया हुआ नहीं है।


वैदिक धर्म में एक निराकार,सर्वज्ञ,सर्वव्यापक,न्यायकारी ईश्वर को ही पूज्य माना जाता है,उसी की उपासना की जाती है,उसके स्थान पर अन्य देवी-देवताओं की नहीं।


धर्म की परिभाषा का स्वरुप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन और पक्षपातरहित न्याय सर्वहित करना है,जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए मानने योग्य है ,उसे धर्म कहते हैं।
उत्तम मानवीय गुण-कर्म-स्वभाव को धारण करना ही धर्म की सार्थकता को सिद्ध करता है।


कुछ शंकाएं:-


प्रश्न :-ईश्वर को सातवें आसमान,चौथे आसमान,परमधाम,बैकुण्ठ आदि एक स्थान पर मानने से क्या हानि है?


उत्तर किसी एक स्थान पर रहता है,वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता,और जो सर्वज्ञ नहीं है वह सब जीवों के कर्मों को जानकर उनका उचित फल नहीं दे सकता,और जो उचित फल नहीं दे सकता वह न्यायकारी नहीं हो सकता।ईश्वर सातवें आसमानादि स्थानों में रहता है,यह बात प्रत्यक्षादि प्रमाणों से भी सिद्ध नहीं है।अतः अमान्य है।


प्रश्न:- जैसे जीव शरीर के एक स्थान में रहते हुए सम्पूर्ण शरीर के व्यापार को जानता है,वैसे ही परमेश्वर भी परमधामादि में एक स्थान पर रहते हुए भी सब कुछ जान सकता है और कर्मो का फल दे सकता है।


उत्तर :-यह दृष्टान्त सत्य नहीं है क्योंकि शरीर में एक स्थान में रहने वाला जीव सम्पूर्ण शरीर के व्यापार को जानता होता तो कोई भी व्यक्ति कभी रोगी नहीं होता।बड़े-बड़े वैद्य डाक्टर भी शरीर के विषय में पूर्ण रुप से नहीं जानते ,और वे रोगी भी हो जाते हैं।इसलिए यह मान्यता असत्य है कि जीव शरीर में एक स्थान पर रहता हुआ सम्पूर्ण शरीर के विषय में जानता है।सर्वज्ञ केवल वही हो सकता है जो सर्वव्यापक हो,एक स्थान में रहने वाला नहीं।


प्रश्न:- जब ईश्वर सर्वव्यापक है तो जीव और प्रकृति के रहने के लिए कोई स्थान नहीं रहना चाहिए ?


उत्तर :- ईश्वर पत्थर की भाँति स्थान को नहीं घेरता और न जीव स्थान को घेरता है।इसलिए ईश्वर के सर्वव्यापक होने पर भी जीव और प्रकृति के रहने में कोई बाधा नहीं है।


प्रश्न :- ईश्वर के अतिरिक्त जीव और प्रकृति को स्वतंत्र अनादि पदार्थ मानने की क्या आवश्यकता है?ईश्वर स्वयं जीव और संसार के भूमि आदि सब पदार्थों को अपने स्वरुप से ही उत्पन्न कर लेवेगा ?


उत्तर :- ईश्वर निर्विकार और निराकार है,अतः जीव,प्रकृति आदि को स्वरुप से उत्पन्न नहीं कर सकता और चेतन से जड़ की उत्पत्ति भी कभी नहीं हो सकती


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