श्रोत्राकाशयोः सम्बन्ध संयमाद् दिव्यं श्रोत्रं।महर्षि पतंजलि कृत योगदर्शन विभूतिपाद-सूत्र-४१,
शब्दार्थ
श्रोत्र आकाशयोः --श्रोत्र और आकाश के,
सम्बन्ध संयमाद्-- सम्बंध में संयम करने से,
दिव्यं श्रोत्रं--दिव्य श्रोत्र हो जाता है।
सूत्रार्थ
श्रोत्र और आकाश के सम्बंध में संयम करने से श्रोत्रेन्द्रिय सूक्ष्म शब्दों को सुनने में समर्थ हो जाती है।
इससे पूर्व सूत्र में हमने समान नामक प्राण में संयम के फल से योगी दीप्तिमान हो जाता है यह जाना।
प्रस्तुत सूत्र से श्रोत्र और आकाश में संयम का फल जानने का प्रयास करेंगे।
महर्षि व्यास अपने भाष्य में लिखते हैं--
समस्त श्रोत्रेन्द्रियोँ का आधार आकाश है और सब शब्दों का भी,जैसा कहा है कि सभी समान स्थान में स्थित श्रोत्रेन्द्रिय वालों को एक देश वाले एक ही प्रकार के शब्दों का श्रवण होता है इसलिए वह यह श्रोत्रेन्द्रिय आकाश का अनुमापक है
साधक है। और आकाश अनावरण कहा गया है। उसी प्रकार अमूर्त आकाश के अनावरण दिखने से आकाश का विभुत्व भी सिद्ध है शब्द ग्रहण से श्रोत्रेन्द्रिय की अनुमिति-अनुमान जनित ज्ञान होता है। बहरे और बिन बहरे इन दोनों में एक शब्द को ग्रहण करता है और दूसरा ग्रहण नहीं करता है
इसलिए श्रोत्र ही शब्द को ग्रहण करता है। श्रोत्रेन्द्रिय और आकाश के सम्बंध में संयम करने वाले योगी का दिव्य श्रोत्र होता है।
अब सरल शब्दों में हम इस सूत्र को समझने का प्रयास करते हैं सर्वप्रथम यह जानेंगे कि आकाश कैसा है इसका क्या गुण है तो कहा आकाश विभु है अर्थात् सब जगह व्यापक है ओ३म् खं ब्रह्म
ईश्वर भी आकाश के समान सर्वव्यापक है इससे आकाश का विभुत्व सिद्ध होता है।
और अब बात गुण की तो आक़ाश का अपना गुण शब्द है जैसे-पृथ्वी का गंध, वायु का स्पर्श, जल का रस, अग्नि का रूप।
योगी यहां तक पहुंचकर अंदर के निकटस्थ ईश अनहद नाद और बाहर की दूर की भी आवाज को एक सीमा तक सुन लेता है।
यह समझना चाहिए।
अतः जो योगाभ्यासी साधक आवाजों को सुनने में योग्य होना चाहे तो इस स्वर विभूति
में सिद्ध हो,मगर लक्ष्य ईश्वर सिद्धि अनिवार्य हो तभी मानव जन्म का साफल्य।
जो योगाभ्यासी साधक लक्ष्य के साधने में इन विभूतियों को पूर्व जान अनथक अविचल लगे हुए हैं वास्तव में वे ही ईश्वर के सच्चे अच्छे आज्ञाकारी पुत्र हैं भक्त हैं।
काव्यमय भाव
श्रोत्र-गगन सम्बन्ध हो संयम।
तब योगी श्रोत्र करे बहु दिव्यं।
सुनने का बढ़ जाता स्तर,
अनहद नाद सुनता ईश्वर स्वर।
हम भी लक्ष्य साधने विभूति सिद्ध हों,
ज्ञानी ध्यानी अति सुसमिद्ध हों।
--दर्शनाचार्या विमलेश बंसल आर्या
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