आतंकियों को मारने के दस फायदे!

आज सुबह से सुरक्षाबलों की आतंकियों के साथ मुठभेड़ चल रही थी। उसके बाद खबर आई कि जीनत उल इस्लाम और मुन्ना लाहौरी कुत्ते की मौत मरे। (कृपया 'कुत्ते की मौत' पर आहत न हों, आपकी इच्छा हो तो लोमड़ी, गीदड़ कुछ भी लगा सकते हैं) सुरक्षाबलों ने उन्हें मार गिराया। अब, जबकि वो मार गिराए गए हैं और भारत सरकार की नई जीरो टॉलरेंस नीति के हिसाब से साल के दो सौ आतंकी निपटाए जा रहे हैं, तो इससे कई सकारात्मक बातें सामने आती हैं।


पहली तो यह है कि आतंकी मारे जा रहे हैं। ये बात सच है कि मारने में भारत सरकार की गोलियाँ खर्च हो रही हैं, लेकिन अगर उस खर्चे की आप 22-22 साल की न्यायिक प्रक्रिया के बाद फाँसी या जेल देने में हुए खर्चे से तुलना करें, जिसे बाद में इनके बापों की जनमपत्री निकालने वाले राडियाछाप पत्रकार और विश्वविद्यालयों को जेहाद और नक्सली आतंक का अड्डा बनाने वाले कामपंथी यह कह कर नकारते रहें कि ये एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग है, तो आप पाएँगे कि चंद गोलियों की कीमत और उनका इम्पैक्ट लॉन्ग रन के लिए सबसे सही है। इसलिए भारत माता के वीर सपूतों की जय बोलते रहिए जो इन आतंकियों को एक अच्छे स्ट्राइक रेट और एवरेज के साथ फ्रंट फुट पर खेलते हुए आभासी आकाशी वेश्यालय भेजते रहते हैं।


दूसरी बात इससे यह होती है कि आपको इस बात पर डिबेट नहीं करना पड़ता कि आतंक का कोई मजहब है कि नहीं। धर्म तो बिलकुल नहीं होता, आतंक का मजहब ज़रूर होता है, लेकिन लोग स्वीकारना नहीं चाहते। इस कारण फर्जी के डिबेट होते हैं, डिबेट करने वाले भी जानते हैं कि बाजारों में बम बाँध कर फटने वाला किसी खास मजहब से ही ताल्लुक रखता है, फिर भी कह नहीं सकता क्योंकि ऐसा कहते ही उसके इंटेलेक्चुअल होने का तमगा छीन लिया जाएगा। बुद्धिजीवी बनने के लिए आदमी बहुत सारे शहादत देता है जिसमें कॉमन सेंस, बुद्धि-विवेक का इस्तेमाल, चीजों को संदर्भ के साथ समझने की क्षमता आदि शामिल हैं।


तीसरी बात यह है कि हमें यह सब नहीं सोचना पड़ता कि वो किसी तथाकथित अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक रखता है कि नहीं। क्योंकि कुछ लोगों के लिए, जो नैरेटिव पर शिकंजा कसे रहते हैं, एक खास मजहब से ताल्लुक रखने वाला आदमी समुदाय विशेष का हो जाता है। उनकी विशेषता भले ही यह हो कि वो भारत देश के विरोध में हों, बम फोड़ते हों, आतंक फैलाते हों, लेकिन वो कहलाते शांतिप्रिय ही हैं। जैसे कि किसी कर्कशा ने अपना नाम पहले से ही 'शांति' रख लिया हो। या, किसी कातिल ने अपना नाम दयासागर रख लिया हो।


उसके बाद, चौथी सकारात्मक बात यह होती है कि आपको कोई मीडिया वाला, या वकील, यह समझाने नहीं आएगा कि वो जब बड़ा हो रहा था तो परिस्थितियाँ बहुत विषम थीं। यह कह कर उसकी सजा कम कराने की कोशिश नहीं होगी कि उसका बेटा दसवीं में है, बीवी अकेली हो जाएगी, परिवार का अकेला कमाने वाला जेल चला जाएगा तो कैसे जीवन होगा! जी, यही दलीलें दी जाती हैं। एक खास मजहब से, जिसका मैं नाम नहीं लूँगा, निकलने वाले अपराधियों को यही सब कह कर बचाया जाता है कि अरे, उसको जेल में डाल दोगे तो उसका घर कैसे चलेगा। बाकी धर्म के अपराधियों के घर की चिंता कभी नहीं हुई क्योंकि उनका परिवार नहीं होता और पूरी दुनिया का कानून इसी आधार पर तो चलता है कि चोर चोरी नहीं करेगा तो घर कैसे चलेगा! ख़ैर, विषयांतर हो गया पर आप मेरी बात समझ गए होंगे।


पाँचवा फायदा यह है कि हमारे सुरक्षा बलों को, हमारी एजेंसियों को कई साल तक लगातार सबूत इकट्ठा नहीं पड़ेगा कि ये आदमी आतंकी है। क्योंकि, आजकल तो आतंकियों के इतने रहनुमा सुप्रीम कोर्ट में वकालत करते हैं कि वो ये भी साबित करने पर आ जाएँगे कि उसके हाथ में एके47 थी तो क्या हुआ, वो जिज्ञासावश देख रहा होगा किसी से लेकर। इससे ये साबित कैसे हुआ कि वो आतंकी था। फिर नए सबूत लाने को कहे जाएँगे। और सबूत आएँगे, तो बाद में कहा जाएगा कि सुरक्षा बलों ने तो सबूत प्लांट किए थे।


छठी बात यह होगी कि आतंकी कोर्ट में यह नहीं कहेगा कि उससे दबाव में बयान दिलवाया गया है। चूँकि, वो यह बात बोल नहीं पाएगा तो मीडिया का समुदाय विशेष और माओनंदन लेनिनप्रिया वामभक्त कामपंथियों की जमात यह नैरेटिव नहीं बना पाएगी कि शांतिप्रिय समुदाय के युवाओं को भारतीय स्टेट टॉर्चर करता है और उन्हें उनके मजहब के आधार पर चिह्नित करते हुए जबरदस्ती आतंकी करार दिया जाता है।


सातवीं बात, जो उसके फाँसी पर चढ़ने के बाद अमूमन चर्चा में आती है, वो यह होगी कि चूँकि वो समुदाय विशेष का था इसीलिए फाँसी दे दी गई, अगर वो हिन्दू होता तो उसे छोड़ दिया जाता। पहली बात तो यह है कि हिन्दू इस तरह के काम में शरीक नहीं होते, इसलिए उन्हें न तो पकड़ा जाता, न ही छोड़ने की नौबत आती। 'हिन्दू टेरर' की थ्योरी कैसे फुस्स हुई, वो सबके सामने है। दूसरी बात, हिन्दुओं को उनके अपराधों की सजा हर दिन इसी देश का कोर्ट देता है, और उस पर कोई बवाल नहीं करता।


आठवीं अच्छी बात यह होती कि फाँसी से बचने के लिए जो 'दया याचिका', यानी मर्सी पटीशन, देकर जो कुछ समय तक सरकारी खर्चे पर दाल-चावल खाई जाती है, उससे बचाव हो जाता है। जो है ही नहीं, वो दाल-चावल क्या खाएगा। दया याचिका को लेकर इमोशनल दलीलें, सत्तारूढ़ पार्टियों की तुष्टीकरण का कैलकुलेशन, चोर पत्रकारों के नैरेटिव आदि को सुन कर समय बर्बाद नहीं होता।


नवीं बात, जो बहुत ही ज्यादा सकारात्मक है, वो यह है कि ह्यूमन राइट्स के नाम पर जो आतंकवादियों और नक्सली आतंकियों को इस देश के चिरकुट विचारक बचाते रहते हैं, वो सब देखने से लोग बच जाते। क्योंकि आतंकी और सुरक्षा बलों के जवानों में ह्यूमन एक ही पक्ष होता है, इसलिए राइट्स भी उन्हीं के होते हैं। उस पक्ष का नाम है सुरक्षा बल। ये लोग अपनी जान की परवाह किए बिना इन कैंसर कारक हूरप्रेमी, अतः सेक्सुअली परवर्ट और ट्विस्टेड, आतंकियों से लड़ते हैं। इसीलिए यह वाहियात तर्क सुनने से पूरा देश बच जाता कि मानवाधिकारों का हनन हो रहा है, जबकि आतंकी न तो मानव हैं, न उनके अधिकार हैं। जा कर उन बापों से पूछिए जिन्हें अपने आतंकी औलादों पर गर्व है और कहते हैं कि एक और होता तो उसे भी कुत्ते की मौत मरने, सॉरी शहीद होने, भेज देते।


इसलिए, दसवीं बात यह है कि इतने स्टेज का झंझट छोड़ो, क्योंकि जिसके हाथ में हथियार है, और जो गोली चला रहा है, उसे पकड़ने के चक्कर में कोई जवान मारा जाए, इससे बेहतर है कि उसे घेरकर मार दिया जाए। हाँ, उसने आत्मसमर्पण करना चाहा हो तो उसको पकड़ा जाए। लेकिन जब सामने से गोली चले, तो गाय की भीड़ को नमस्कार करके सर झुकाना बुद्धिमानी तो बिलकुल नहीं है।


- अजीत भारती (27 जुलाई 2019)


 


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